लोगों की राय
ई-पुस्तकें >>
कामायनी
कामायनी
प्रकाशक :
भारतीय साहित्य संग्रह |
प्रकाशित वर्ष : 2016 |
पृष्ठ :177
मुखपृष्ठ :
ईपुस्तक
|
पुस्तक क्रमांक : 9700
|
आईएसबीएन :9781613014295 |
 |
|
9 पाठकों को प्रिय
92 पाठक हैं
|
जयशंकर प्रसाद की सर्वश्रेष्ठ रचना
बिखरे असंख्य ब्रह्मांड गोल,
युग त्याग ग्रहण कर रहे तोल,
विद्युत् कटाक्ष चल गया जिधर,
कंपित संसृति बन रही उधर,
चेतन परमाणु अनंत बिखर,
बनते विलीन होते क्षण-भर;
यह विश्व झूलता रहा महा दोल,
परिवर्तन का पट रहा खोल।
उस शक्ति-शरीरी का प्रकाश,
सब शाप पाप कर विनाश-
नर्तन में निरत, प्रकृति गल कर,
उस कांति सिंधु में घुल-मिलकर,
अपना स्वरूप धरती सुंदर,
कमनीय बना था भीषणतर,
हीरक-गिरि पर विद्युत-विलास,
उल्लसित महा हिम धवल हास।
देखा मनु ने नर्त्तित नटेश,
हत चेत पुकार उठे विशेष-
''यह क्या! श्रद्धे बस तू ले चल,
उन चरणों तक, दे निज संबल,
सब पाप पुण्य जिसमें जल-जल,
पावन बन जाते हैं निर्मल,
मिटते असत्य-से ज्ञान-लेश,
समरस, अखंड, आनंद-वेश!
0 0 0
...Prev | Next...
मैं उपरोक्त पुस्तक खरीदना चाहता हूँ। भुगतान के लिए मुझे बैंक विवरण भेजें। मेरा डाक का पूर्ण पता निम्न है -
A PHP Error was encountered
Severity: Notice
Message: Undefined index: mxx
Filename: partials/footer.php
Line Number: 7
hellothai