जितना प्रेम हमारा बढ़ता है, उतनी ही सेक्स की जीवन में संभावना कम होती चली
जाती है।
प्रेम और ध्यान दोनों मिलकर उस दरवाजे को खोल देते हैं, जो परमात्मा का
दरवाजा है।
प्रेम+ध्यान=परमात्मा। प्रेम और ध्यान का जोड़ हो जाए और परमात्मा उपलब्ध हो
जाता है।
और उस उपलब्धि से जीवन में ब्रह्मचर्य फलित होता है। फिर सारी ऊर्जा एक नए ही
मार्ग पर ऊपर चढ़ने गती है। फिर बह-बह कर निकल जाता। फिर जीवन से बाहर
निकल-निकल कर व्यर्थ नहीं हो जाती। फिर जीवन के भीतरी मार्गों पर गति करने
लगती है। उसका एक उर्ध्वगमन एक ऊपर की तरफ यात्रा शुरू होती है।
अभी हमारी यात्रा नीचे की तरफ है। सेक्स ऊर्जा का अधोगमन है, नीचे की तरफ बह
जाना है। ब्रह्मचर्य ऊर्जा का ऊर्ध्वगमन है, ऊपर की तरफ उठ जाना है। प्रेम और
ध्यान ब्रह्मचर्य के सूत्र हैं।
तीसरी बात कल आपसे करने को हूं कि ब्रह्मचर्य उपलब्ध होगा तो क्या फल होगा?
क्या होगी उपलब्धि? क्या मिल जाएगा?
ये दो बातें मैंने आज आपसे कहीं-प्रेम और ध्यान। मैंने यह कहा है कि छोटे
बच्चों से इनकी शिक्षा शुरू हो जानी चाहिए। इससे आप यह मत सोच लेना कि अब तो
हम बच्चे नहीं रहे। इसलिए करने को कुछ बाकी नहीं है। यह आप मत सोचकर चले जाना
अन्यथा मेरी मेहनत फिजूल गयी। आप किसी भी उम्र के हो, यह काम शुरू किया जा
सकता है। यह काम कभी भी शुरू किया जा सकता है। हालांकि जितनी उम्र बढ़ती चली
जाती है, उतना मुश्किल होता चला जाता है। बच्चों के साथ हो सके सौभाग्य,
लेकिन कभी भी हो सके सौभाग्य। इतनी देर कभी भी नहीं हुई है कि हम कुछ भी न कर
सकें। हम आज शुरू कर सकते हैं।
और जो लोग सीखने के लिए तैयार हैं वे बूढ़े भी बच्चों जैसे ही होते हैं वे
बुढ़ापे में भी शुरू कर सकते हैं। अगर सीखने की क्षमता है, अगर लर्निग का
एटीट्यूड है, अगर वे इस ज्ञान से नहीं भर गए हैं कि हमने सब जान लिया और सब
पा लिया तो वे सीख सकते हैं और वे छोटे बच्चों की भांति नयी यात्रा शुरू कर
सकते हैं।
बुद्ध के पास एक भिक्षु कुछ वर्षों से दीक्षित था। एक दिन बुद्ध ने उससे
पूछा, भिक्षु तुम्हारी उम्र क्या है? उस भिक्षु ने कहा, मेरी उम्र पांच वर्ष!
बुद्ध कहने लगे, पांच वर्ष! तुम तो कोई सत्तर वर्ष के मालूम पड़ते हो! कैसा
झूठ बोलते हो।
तो उस भिक्षु ने कहा, लेकिन पांच वर्ष पहले ही मेरे जीवन में ध्यान की किरण
फूटी। पांच वर्ष पहले ही मेरे जीवन में प्रेम की वर्षा हुई; उसके पहले मैं
जीता था वह सपने में जीना था। वह नीदं में जीना था। उसकी गिनती अब मैं नहीं
करता हूं। कैसे करुं?
जिंदगी तो इधर पांच वर्षों से शुरू हुई, इसलिए मैं कहता हूं कि मेरी उम्र
पांच वर्ष है?
बुद्ध ने अपने भिक्षुओं से कहा, भिक्षुओं इस बात को ख्याल में रख लेना। अपनी
उम्र आज से तुम भी इस तरह जोड़ना। यही उम्र को नापने का ढंग समझना।
अगर प्रेम और ध्यान का जन्म नहीं हुआ है तो उस फिजूल चली गयी। अभी आपका ठीक
जन्म भी नहीं हुआ है। और कभी भी उतनी देर नहीं हुई, जब कि हम प्रयास करें,
श्रम करें और हम अपने नए जन्म को उपलब्ध न हो जाएं।
इसलिए मेरी बात से यह नतीजा मत निकाल लेना आप कि आप तो अब बचपन के पार हो
चुके, इसलिए यह बात आने वाले बच्चों के लिए है। कोई आदमी किसी भी क्षण इतनी
दूर नहीं निकल गया है कि वापस न लौट आए। कोई आदमी कितने ही गलत रास्तों पर
चला हो, ऐसी जगह नहीं पहुंच गया है कि ठीक रास्ता उसे दिखायी न पड़ सके। कोई
आदमी कितने ही हजारों वर्षों से अंधकार में रह रहा हो, इसका मतलब यह नहीं है
कि वह दिया जलाएगा तो अंधकार कहेगा कि मैं हजार वर्ष पुराना हूं, इसलिए नहीं
टूटता। दिया जलाने से एक दिन का अंधकार भी टूटता है, हजार साल का अंधकार भी
उसी तरह टूट जाता है। दिया जलाने की चेष्टा बचपन में आसानी से हो सकती है,
बाद में थोड़ी कठिनाई है।
लेकिन, कठिनाई का अर्थ असंभावना नहीं है। कठिनाई का अर्थ है; थोड़ा ज्यादा
श्रम। कठिनाई का अर्थ है; थोड़ा ज्यादा संकल्प। कठिनाई का अर्थ है; थोड़ा
ज्यादा-ज्यादा लगनपूर्वक। ज्यादा सातत्य से तोड़ना पड़ेगा, व्यक्तित्व की जो
बंधी धाराएं हैं, उनको और नए मार्ग खोलने पड़ेंगे।
लेकिन जब नए मार्ग की जरा-सी भी किरण फूटनी शुरू होती है तो सारा श्रम ऐसा
लगता है कि हमने कुछ भी नहीं किया है और बहुत कुछ पा लिया है। जब एक किरण भी
आती है उस आनंद की, उस सत्य की, उन प्रकाश की तो लगता है कि हमने तो बिना कुछ
किए पा लिया है; क्योंकि हमने जो किया था, उसका तो कोई भी मूल्य नहीं था। जो
हाथ में आ गया है, वह तो अमूल्य हैं। इसलिए यह भाव मन में आप न लेंगे। ऐसी
मेरी प्रार्थना है।
मेरी बातों को इतनी शांति और प्रेम से सुना उसके लिए बहुत-बहुत अनुगृहीत हूं
और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं, मेरे प्रणाम स्वीकार
करें।
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