हमने कपड़े मनुष्य के पहन रखे हैं, हम भाषा मनुष्यों की बोलते हैं, हमने सारा
रूप मनुष्यों का पैदा कर रखा है; लेकिन भीतर गहरे-से-गहरे मन के तल पर हम
पशुओं से ज्यादा नहीं होते, नहीं हो सकते हैं। और इसीलिए जरा-सा मौका मिल जाए
और हमारी मनुष्यता को जरा-सी छूट मिल जाए, तो हम तत्काल पशु हो जाते हैं।
हिंदुस्तान पाकिस्तान का बँटवारा हुआ और हमें दिखाई पड़ गया कि आदमी के कपड़ों
के भीतर जानवर बैठा आ है। हमें दिखाई पड़ गया कि वे लोग जो कल मस्जिदों में
प्रार्थना करते थे मंदिरों में गीता पढ़ते थे, वे क्या कर रहे हैं? वे हत्याएं
कर रहे हैं वे बलात्कार कर रहे हैं वे सब कुछ कर रहे हैं! वे ही लोग जो
मंदिरों और मस्जिदों में दिखाई पड़ते थे, वे ही लोग बलात्कार करते हुए दिखाई
पडने लगे! क्या हो गया इनको?
अभी दंगा-फसाद हो जाए, अभी यहां दंगा हो जहर, और यहीं आदमी को दंगे में मौका
मिल जाएगा अपनी आदमियत से छुट्टी ले लेने का और फौरन वह जो भीतर छिपा हुआ पशु
है, प्रकट हो जाता है! वह हमेशा तैयार है, वह प्रतीक्षा कर रहा है कि मुझे
मौका मिल जाए। भीड़-भाड़ में उसे मौका मिल जाता है, तो वह जल्दी से छोड़ देता है
अपना ख्याल-वह जो बांध-द्य कर उसने रखा हुआ है। भीड़ में मौका मिल जाता है उसे
भूल जाने का कि मैं भूल जाऊं अपने को!
इसलिए आज तक अकेले आदमियों ने उतने पाप नहीं किए हैं, जितने भीड़ में आदमियों
ने पाप किए हैं। अकेला आदमी थोडा डरता है कि कोई देख लेगा, अकेला आदमी थोड़ा
सोचता है कि मैं यह क्या कर रहा हूं, अकेले आदमी को अपने कपड़ों की थोड़ी फिक्र
होती है कि लोग क्या कहेंगे-जानवर हो!
लेकिन जब बड़ी भीड़ होती है तो अकेला आदमी कहता है कि अब कौन देखता है, अब कौन
पहचानता है, वह भीड़ के साथ एक हो जाता है। उसकी आइडेंटिटी मिट जाती है। अब वह
फलां नाम का आदमी नहीं है, अब वह बड़ी भीड है। और बड़ी भीड़ जो करती है, वह भी
करता है! और क्या करता है? आग लगाता है, बलात्कार करता है। भीड़ में उसे मौका
मिल जाता है कि वह अपने पशु को फिर छुट्टी दे दे, जो उसके भीतर छिपा है।
और इसीलिए आदमी दस-पांच वर्षों में युद्ध की प्रतीक्षा करने लगता है, दंगों
की प्रतीक्षा करने लगता है! अगर हिंदू-मुसलमान का बहाना मिल जाए तो
हिंदू-मुसलमान सही, अगर हिंदू-मुसलमान का न मिले तो गुजराती-मराठी भी काम कर
सकता है। अगर गुजराती-मराठी न हों, तो हिंदी बोलनेवाला और गैर-हिंदी
बोलनेवाला भी काम कर सकता है!
कोई भी बहाना चाहिए आदमी को, उसके भीतर के पशु को छुट्टी चाहिए। वह घबरा जाता
है पशु भीतर बंद रहते-रहते। वह कहता है, मुझे प्रकट होने दो। और आदमी के भीतर
का पशु तब तक नहीं मिटता है, जब तक पशुता का जो सहज मार्ग है, उसके ऊपर
मनुष्य की चेतना न उठे। पशुता का सहज मार्ग-हमारी ऊर्जा, हमारी शक्ति का एक
ही द्वार है बहने का-वह है सेक्स। और वह द्वार बंद कर दें तो कठिनाई खड़ी हो
जाती है। उस द्वार को बंद करने के पहले नए द्वार का उद्घाटन होना जरूरी
है-जीवन-चेतना नई दिशा में प्रवाहित हो सके।
लेकिन यह हो सकता है। यह आज तक किया नहीं गया-नहीं किया गया, क्योंकि दमन सरल
मालूम पडा, रूपांतरण कठिन है। दबा देना किसी बात को, आसान है। बदलना, बदलने
की विधि और साधना की जरूरत है। इसलिए हमने सरल मार्ग का उपयोग किया कि दबा दो
अपने भीतर।
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