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संभोग से समाधि की ओर

ओशो

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :440
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 97
आईएसबीएन :9788171822126

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संभोग से समाधि की ओर...



संभोग : अहं-शून्यता की झलक

मेरे प्रिय आत्मन,

एक सुबह, अभी सूरज भी निकला नहीं था और एक मांझी नदी के किनारे पहुंच गया था। उसका पैर किसी चीज से टकरा गया। झुककर उसने देखा, पत्थरों से भरा हुआ एक झोला पड़ा था। उसने अपना जाल किनारे पर रख दिया, वह सुबह के सूरज के उगने की प्रतीक्षा करने लगा। सूरज उग आए, वह अपना जाल फेंके और मछलियां पकड़े। वह जो झोला उसे पड़ा हुआ मिल गया था, जिसमें पत्थर थे, वह एक-एक पत्थर निकालकर शांत नदी में फेंकने लगा। सुबह के सन्नाटे में उन पत्थरों के गिरने की छपाक की आवाज सुनता, फिर दूसरा पत्थर फेंकता।

धीरे-धीरे सुबह का सूरज निकला, रोशनी हुई। तब तक उसने झोले के सारे पत्थर फेंक दिए थे, सिर्फ एक पत्थर उसके हाथ में रह गया था। सूरज की रोशनी में देखते ही जैसे उसके हृदय की धड़कन बंद हो गई, सांस रुक गई। उसने जिन्हें पत्थर समझकर फेंक दिया था, वे हीरे-जवाहरात थे; लेकिन अब तो अंतिम हाथ में बचा था टुकड़ा और वह पूरे झोले को फेंक चुका था। और वह रोने लगा, चिल्लाने लगा। इतनी संपदा उसे मिल गई थी कि अनंत जन्मों के लिए काफी थी, लेकिन अंधेरे में, अनजान, अपरिचित, उसने उस सारी संपदा को पत्थर समझकर फेंक दिया था।
लेकिन फिर भी वह मछुआ सौभाग्यशाली था क्योंकि अंतिम पत्थर फेंकने के पहले सूरज निकल आया था और उसे दिखाई पड़ गया था कि उसके हाथ में हीरा है। साधारणतया सभी लोग इतने सौभाग्यशाली नहीं होते। जिंदगी बीत जाती है, सूरज नहीं निकलता, सुबह नहीं होती, रोशनी नहीं आती और सारे जीवन के हीरे हम पत्थर समझकर फेंक चुके होते हैं।

जीवन एक बड़ी संपदा है, लेकिन आदमी सिवाय उसे फेंकने और गंवाने के कुछ भी नहीं करता है!
जीवन क्या है, यह भी पता नहीं चल पाता और हम उसे फेंक देते हैं! जीवन में क्या छिपा था, कौन-से राज, कौन-सा रहस्य कौन-सा स्वर्ग, कौन-सा आनंद, कौन-सी मुक्ति, उस सबका कोई भी अनुभव नहीं हो पाता और जीवन हमारे हाथ से रिक्त हो जाता है!
इन आने वाले तीन दिनों में जीवन की संपदा पर ये थोड़ी-सी बातें मुझे कहनी हैं। लेकिन जो लोग जीवन की संपदा को पत्थर मानकर बैठ गए हैं वे कभी आंख खोलकर देख पाएंगे कि जिन्हें उन्होंने पत्थर समझा है, वे हीरे-माणिक हैं यह बहुत कठिन है। और जिन लोगों ने जीवन को पत्थर मानकर फेंकने में ही समय गंवा दिया है, अगर आज उनसे कोई कहने जाए कि जिन्हें तुम पत्थर समझकर फेंक रहे थे वहां हीरे-मोती भी थे तो वे नाराज होंगे। क्रोध से भर जाएंगे। इसलिए नहीं कि जो बात कही गई है, वह गलत है, बल्कि इसलिए कि यह बात इस बात का स्मरण दिलाती है कि उन्होंने बहुत-सी संपदा फेंक दी है।

लेकिन चाहे हमने कितनी ही संपदा फेंक दी हो, अगर एक क्षण भी जीवन का शेष है तो फिर भी हम कुछ बचा सकते हैं और कुछ जान सकते हैं और कुछ पा सकते हैं। जीवन की खोज में कभी भी इतनी देर नहीं होती कि कोई आदमी निराश होने का कारण पाए।
लेकिन हमने यह मान ही लिया है-अंधेरे में, अज्ञान में कि जीवन में कुछ भी नहीं है सिवाय पत्थरों के! जो लोग ऐसा मानकर बैठ गए हैं उन्होंने खोज के पहले ही हार स्वीकार कर ली है।
मैं इस हार के संबंध में, इस निराशा के संबध में, इस मान ली गई पराजय के संबंध में सबसे पहले चेतावनी यह देना चाहता हूं कि जीवन मिट्टी और पत्थर नहीं है। जीवन में बहुत-कुछ है। जीवन के मिट्टी-पत्थर के बीच बहुत-कुछ छिपा है। अगर खोजने वाली आंखें हों तो जीवन से वह सीढ़ी भी निकलती हैँ जो परमात्मा तक पहुंचती है। इस शरीर में भी, जो देखने पर हड्डी, मांस और चमड़ी से ज्यादा 
नहीं है, वह छिपा है, जिसका हड्डी, मांस और चमड़ी से कोई भी संबंध नहीं है। इस साधारण-सी देह में भी, जो आज जन्मती है, कल मर जाती है, और मिट्टी हो जाती है, उसका वास है-जो अमृत है, जो कभी जन्मता नहीं और कभी समाप्त भी नहीं होता।
रूप के भीतर अरूप छिपा है और दृश्य के भीतर अदृश्य का वास है और मृत्यु के कुहासे में अमृत की ज्योति छिपी है। मृत्यु के धुएं में अमृत की लौ भी छिपी हुई है। वह फ्लेम, वह ज्योति भी छिपी है, जिसकी कि कोई मृत्यु नहीं है।

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