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संभोग से समाधि की ओर

ओशो

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :440
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 97
आईएसबीएन :9788171822126

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संभोग से समाधि की ओर...


तो दूसरी बात स्मरणीय है कि व्यक्ति जब मिटता है, नहीं रह जाता, पाता है कि 'हूं' है ही नहीं। जो है, वह 'मैं' नहीं है, जो है वह 'सब' है। तब द्वार गिरता है, दीवाल टूटती है। और तब वह गंगा बहती है, जो भीतर छिपी है और तैयार है। वह शून्य की प्रतीक्षा कर रही है कि कोई शून्य हो जाए तो उससे बह उठूं।

हम एक कुआं खोदते हैं। पानी भीतर है। पानी कहीं से लाना नहीं होता है, लेकिन बीच में मिट्टी-पत्थर पड़े हैं उनको निकालकर बाहर कर देते हैं। करते क्या हैं हम? करते हैं हम-एक शून्य बनाते हैं एक खाली जगह बनाते हैं एक
एमप्टीनेस बनाते हैं। कुआ खोदने का मतलब है, खाली जगह बनाना, ताकि खाली जगह में जो भीतर छिपा हुआ पानी है, यह प्रकट होने के लिए जगह पा जाए स्पेस पा जाए वह भीतर है, उसको जगह चाहिए प्रकट होने को। जगह नही मिल रही है। भरा हुआ है कुआ मिट्टी-पत्थर से। मिट्टी-पत्थर हमने अलग कर दिए, वह पानी उबलकर बाहर आ गया।

आदमी के भीतर प्रेम भरा हुआ है। स्पेस चाहिए, जगह चाहिए, जहां वह प्रकट हो जाए।

और हम भरे हुए हैं अपने 'मैं' से। और आदमी चिल्लाए चला जा रहा है 'मैं'। और स्मरण रखें, जब तक आपकी आत्मा चिल्लाती है मैं, तब तक आप मिट्टी-पत्थर से भरे हुए कुएं हैं। आपके कुएँ में प्रेम के झरने नही फूटेंगे, नहीं फूट सकते।
मैंने सुना है कि एक बहुत पुराना वृक्ष था। आकाश में सम्राट् की तरह उसके हाथ फैले हुए थे। उस पर फल आते थे तो दूर-दूर से पक्षी सुगंध लेने आते थे। उस पर फूल लगते थे तो तितलियां उड़ती थीं। उसकी छाया, उसके फैले हाथ, हवाओं में उसका खड़ा रूप आकाश में बड़ा सुंदर था। एक छोटा बच्चा उसकी छाया में रोज खेलने आता था। उस बड़े वृक्ष को उस छोटे बच्चे से प्रेम हो गया।

बड़ा को छोटों से प्रेम हो सकता है, अगर बड़ों को पता न हो कि हम बड़े हैं। वृक्ष को कोई पता नही था कि मैं बड़ा हूं। यह पता सिर्फ आदमियों को होता है। इसलिए उसका प्रेम हो गया।

अहंकार हमेशा अपने से बड़ों को प्रेम करने की कोशिश करता है। अहंकार हमेशा अपने से बड़ों से संबंध जोड़ता है। प्रेम के लिए कोई बड़ा-छोटा नहीं। जो आ जाए, उसी से संबंध जुड़ जाता है। वह एक छोटा-सा बच्चा खेलता आता था उस वृक्ष के पास। उस वृक्ष का उससे प्रेम हो गया। लेकिन वृक्ष की शाखाएं ऊपर थीं। बच्चा छोटा था तो वृक्ष अपनी शाखाएं उसके लिए नीचे झुकाता, ताकि वह फल तोड़ सके, फूल तोड़ सके।

प्रेम हमेशा झुकने को राजी है, अहंकार कभी भी झुकने को राजी नहीं है।
अहंकार के पास जाएंगे तो अहंकार के हाथ और ऊपर उठ जाएंगे, ताकि आप उन्हें छू न सकें। क्योंकि जिसे छू लिया जाए वह छोटा आदमी है। जिसे न छुआ जा सके, दूर सिंहासन पर दिल्ली में हो, वह आदमी बड़ा आदमी है।
उस वृक्ष की शाखाएं नीचे झुक जाती हैं, जब वह बच्चा खेलता हुआ आता। और जब बच्चा उसका फूल तोड़ लेता, तो वह वृक्ष बहुत खुश होता। उसके प्राण आनंद से भर जाते।
प्रेम जब भी कुछ दे पाता है, तब खुश होता है।
अहंकार जब भी कुछ ले पाता है, तभी खुश होता है।
फिर वह बच्चा बड़ा होने लगा। वह कभी उसकी छाया में सोता, कभी उसके फल खाता, कभी उसके फूलों का ताज बनाकर पहनता और जंगल का सम्राट् हो जाता।
प्रेम के फूल जिसके पास भी बरसते हैं वही सम्राट् हो जाता है। और जहां भी अहंकार घिरता है, वही सब अंधकार हो जाता है। आदमी दीन और दरिद्र हो जाता है।

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