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कबीरदास की साखियां

वियोगी हरि

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :91
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9699
आईएसबीएन :9781613013458

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जीवन के कठिन-से-कठिन रहस्यों को उन्होंने बहुत ही सरल-सुबोध शब्दों में खोलकर रख दिया। उनकी साखियों को आज भी पढ़ते हैं तो ऐसा लगता है, मानो कबीर हमारे बीच मौजूद हैं।

'कबीर' घोड़ा प्रेम का, चेतनि चढ़ि असवार।
ग्यान खड़ग गहि काल सिरि, भली मचाई मार।।11।।

कबीर कहते हैं- क्या ही मार-धाड़ मचा दी है इस चेतन शूरवीर ने। सवार हो गया है प्रेम के घोड़े पर। तलवार ज्ञान की ले ली है, और काल-जैसे शत्रु के सिर पर वह चोट-पर-चोट कर रहा है।

जेते तारे रैणि के, तेतै बैरी मुझ।
धड़ सूली सिर कंगुरैं, तऊ न बिसारौं तुझ।।12।।

मेरे अगर उतने भी शत्रु हो जायं, जितने कि रात में तारे दीखते हैं, तब भी मेरा धड़ सूली पर होगा और सिर रखा होगा गढ़ के कंगूरे पर, फिर भी मैं तुझे भूलने का नहीं।

सिरसाटें हरि सेविये, छांड़ि जीव की बाणि।
जे सिर दीया हरि मिलै, तब लगि हाणि न जाणि।।13।।

सिर सौंपकर ही हरि की सेवा करनी चाहिए। जीव के स्वभाव को बीच में नहीं आना चाहिए। सिर देने पर यदि हरि से मिलन होता है, तो यह न समझा जाय कि वह कोई घाटे का सौदा है।

'कबीर' हरि सबकूं भजै, हरि कूं भजै न कोइ।
जब लग आस सरीर की, तब लग दास न होइ।। 14।।

कबीर कहते हैं- हरि तो सबका ध्यान रखता है, सबका स्मरण करता है, पर उसका ध्यान-स्मरण कोई नहीं करता। प्रभु का भक्त तबतक कोई हो नहीं सकता, जबतक देह के प्रति आशा और आसक्ति है।

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