ई-पुस्तकें >> कबीरदास की साखियां कबीरदास की साखियांवियोगी हरि
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जीवन के कठिन-से-कठिन रहस्यों को उन्होंने बहुत ही सरल-सुबोध शब्दों में खोलकर रख दिया। उनकी साखियों को आज भी पढ़ते हैं तो ऐसा लगता है, मानो कबीर हमारे बीच मौजूद हैं।
जिस मरनैं थैं जग डरै, सो मेरे आनन्द।
कब मरिहूं, कब देखिहूं, पूरन परमानंद।। 6।।
जिस मरण से दुनिया डरती है, उससे मुझे तो आनन्द होता है, कब मरूंगा और कब देखूंगा मैं अपने पूर्ण सच्चिदानन्द को।
कायर बहुत पमांवहीं, बहकि न बोलै सूर।
काम पड्यां हीं जाणिये, किस मुख परि है नूर।। 7।।
बड़ी-बड़ी डींगें कायर ही हांका करते हैं, शूरवीर कभी बहकते नहीं। यह तो काम आने पर ही जाना जा सकता है कि शूरवीरता का नूर किस चेहरे पर प्रगट होता है।
'कबीर' यह घर पेम का, खाला का घर नाहिं।
सीस उतारै हाथि धरि, सो पैसे घर माहिं।। 8।।
कबीर कहते हैं- यह तो प्रेम का घर है, किसी खाला का नहीं, वही इसके अन्दर पैर रख सकता है, जो अपना सिर उतारकर हाथ पर रख ले। (सीस अर्थात् अहंकार। पाठान्तर है 'भुइं धरै'। यह पाठ कुछ अधिक सार्थक जंचता है। सिर को उतारकर जमीन पर रख देना यह हाथ पर रख देने से कहीं अधिक शूरवीरता और निरहंकारिता को व्यक्त करता है।)
'कबीर' निज घर प्रेम का, मारग अगम अगाध।
सीस उतारि पग तलि धरै, तब निकट प्रेम का स्वाद।।9।।
कबीर कहते हैं- अपना खुद का घर तो इस जीवात्मा का प्रेम ही है। मगर वहां तक पहुंचने का रास्ता बड़ा विकट है, और लम्बा इतना कि उसका कहीं छोर ही नहीं मिल रहा। प्रेम-रस का स्वाद तभी सुगम हो सकता है जब कि अपने सिर को उतारकर उसे पैरों के नीचे रख दिया जाय।
प्रेम न खेतौं नीपजै, प्रेम न हाटि बिकाइ।
राजा परजा जिस रुचै, सिर दे सो ले जाइ।। 10।।
अरे भाई! प्रेम खेतों में नहीं उपजता, और न हाट-बाजार में बिका करता है। वह महंगा है और सस्ता भी-यों कि राजा हो या प्रजा, कोई भी उसे सिर देकर खरीद ले जा सकता है।
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