ई-पुस्तकें >> कबीरदास की साखियां कबीरदास की साखियांवियोगी हरि
|
10 पाठकों को प्रिय 72 पाठक हैं |
जीवन के कठिन-से-कठिन रहस्यों को उन्होंने बहुत ही सरल-सुबोध शब्दों में खोलकर रख दिया। उनकी साखियों को आज भी पढ़ते हैं तो ऐसा लगता है, मानो कबीर हमारे बीच मौजूद हैं।
भेष का अंग
माला पहिरै मनमुषी, ताथैं कछू न होइ।
मन माला कौं फेरता, जग उजियारा सोइ।। 1।।
लोगों ने यह 'मनमुखी' माला धारण कर रखी है, नहीं समझते कि इससे कोई लाभ होने का नहीं। माला मन ही की क्यों नहीं फेरते ये लोग? 'इधर' से हटाकर मन को 'उधर' मोड़ दें, जिससे सारा जगत् जगमगा उठे। (आत्मा का प्रकाश फैल जाय और भर जाय सर्वत्र)
'कबीर' माला मन की, और संसारी भेष।
माला पहरयां हरि मिलै, तौ अरहट कै गलि देखि।। 2।।
कबीर कहते हैं - सच्ची माला ही अचंचल मन की ही है, बाकी तो संसारी भेष है मालाधारियों का। यदि माला पहनने से ही हरि से मिलन होता हो, तो रहट को देखो, हरि से क्या उसकी भेंट हो गई, इतनी बड़ी माला गले में डाल लेने से?
माला पहरयां कुछ नहीं, भगति न आई हाथ।
माथौ मूंछ मुंडाइ करि, चल्या जगत के साथ।। 3।।
यदि भक्ति तेरे हाथ न लगी, तो माला पहनने से क्या होना-जाना? केवल सिर मुंडा लिया और मूछें मुंडा लीं-बाकी व्यवहार तो दुनियादारों के जैसा ही है तेरा।
साईं सेती सांच चलि, औरां सूं सुध भाइ।
भावैं लम्बे केस करि, भावैं घुरड़ि मुंडाइ।। 4।।
स्वामी के प्रति तुम सदा सच्चे रहो, और दूसरों के साथ सहज- सीधे भाव से बरतो, फिर चाहे तुम लम्बे बाल रखो या सिर को पूरा मुंडा लो। (वह मालिक भेष को नहीं देखता, वह तो सच्चों का गाहक है।)
केसों कहा बिगाड़िया, जो मुंडै सौ बार।
मन को काहे न मूंडिये, जामैं विषय-बिकार।। 5।।
बेचारे इन बालों ने क्या बिगाड़ा तुम्हारा, जो सैकड़ों बार मूंडते रहते हो! अपने मन को मूंड़ो न, उसे साफ़ कर लो न, जिसमें विषयों के विकार-ही-विकार भरे पड़े हैं।
|