आचार्य श्रीराम शर्मा >> गायत्री और यज्ञोपवीत गायत्री और यज्ञोपवीतश्रीराम शर्मा आचार्य
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यज्ञोपवीत का भारतीय धर्म में सर्वोपरि स्थान है।
व्रत लेने का अर्थ ही यह है कि अभी यह नहीं किया जा सका था - आगे यह करेंगे। कोई व्रत लेना है कि मैं नियमित रूप से व्यायाम किया करूँगा इसका अर्थ है कि वह अब तक ऐसा नहीं करता है, आगे करेगा। जो व्यक्ति सदा से ही नियमित व्यायाम करता है, उसके लिए तो वह एक साधारण स्वाभाविक दैनिक क्रिया है उसका व्रत लेने की उसे क्या आवश्यकता है? इसी प्रकार जो व्यक्ति द्विजत्व में पारंगत नहीं हो सके हैं उन्हें ही यज्ञोपवीत धारण करना आवश्यक है। जब उनका द्विजत्व पुष्ट, परिपक्व और पूर्ण हो जायेगा तब फिर उन्हें इसकी कुछ आवश्यकता भी नहीं रहेगी। सन्यास आश्रम में जनेऊ का त्याग कर दिया जाता है, क्योंकि उस स्थिति में पहुँचे हुए व्यक्ति के लिए वह निष्प्रयोजन है। जिस कार्य के लिए उसे धारण किया गया था वह पूरा हो चुका तो व्यर्थ बोझ क्यों लादा जाय? जो लोग शंका करते हैं कि हम द्विज नहीं हैं इसलिए हम जनेऊ पहनने का साहस क्यों करें। उन्हें समझना चाहिए कि- उन्हें इसी कारण यज्ञोपवीत अवश्य पहनना चाहिए क्योंकि उनमें द्विजत्व का अभी पूर्ण विकास नहीं हो पाया है। इस विकास के लिए ही तो उपवीत धारण किया जाता है। 'क्या कोई पहलवानी का विद्यार्थी ऐसी शंका करता है कि मैं पूर्ण पहलवान नहीं हूँ, इसलिए अखाड़े में क्यों उतरूँ, मुगदर क्यों उठाऊँ? उसे अखाड़े में उतरने और मुगदर उठाने की इसलिए आवश्यकता है कि वह अभी पूर्ण पहलवान नहीं हो पाया। जब वह पूर्ण पहलवान हो जायेगा तो उसे इन अभ्यासों से छुटकारा भी मिल सकता है। यही बात उपवीत धारण के सम्बन्ध में भी कही जा सकती है।
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