आचार्य श्रीराम शर्मा >> गायत्री और यज्ञोपवीत गायत्री और यज्ञोपवीतश्रीराम शर्मा आचार्य
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यज्ञोपवीत का भारतीय धर्म में सर्वोपरि स्थान है।
तीन ऋण
(1) देव ऋण (2) ऋषि ऋण (3) पितृ ऋण।
इस त्रिक में उन सबके प्रति विनम्रता और कृतज्ञता के भाव हैं जिन्होंने मनुष्य को ज्ञान और विकास के साधन प्रदान किये हैं। ऐसे लोगों के प्रति हम ऋणी हैं और उसे कर्त्तव्य पालन के द्वारा ही चुका सकते हैं।
दुःखों के तीन कारण हैं- (1) अज्ञान (2) अशक्ति (3) अभाव। यज्ञोपवीत हमें ज्ञान शक्ति और अध्यवसाय की प्रेरणा देकर इन दुःखों के कारणों से बचाता है। जीवन की सारी सुख-सुविधाएँ इन्हीं तीन तत्त्वों पर आधारित हैं जो इस मर्म को समझकर तदनुकूल आचरण करते हैं उनका यज्ञोपवीत सार्थक हो जाता है।
ज्ञान को तीन क्षेत्रों में बाँटा है (1) ईश्वर (2) जीव (3) प्रकृति। रोजी-रोटी के साधनों तक सीमित रह जाने वाले लोग संसार में आने का यथार्थ प्रयोजन पूरा नहीं कर सकते हैं। हम प्रकृति के सहारे जीवन धारण किये हुए हैं इसलिए उसकी जानकारी तो करें पर जीवन का आविर्भाव किन परिस्थितियों में हुआ और इस विराट् चेतन जगत् का नियन्त्रण कौन करता है, इसकी जानकारी भी हमें जब तक नहीं हो, तो हमारा भौतिक ज्ञान सुख, सन्तोष प्रदान नहीं कर सकता। यज्ञोपवीत का एकत्रिक इसी बात का संकेत करता है।
हमारे व्यावहारिक जीवन में उल्लास, उत्साह, आनन्द, शौर्य, सुख, सन्तोष और शान्ति जिन गुणों पर आधारित हैं वह गुण भी मुख्यतया तीन ही हैं (1) सत्य (2) प्रेम (3) न्याय। हमारे जीवन में जो कुछ भी यथार्थ है, उससे भटकते हैं और अपने जीवन में कृत्रिमता का आवरण ओढ़ लेते हैं, तभी कष्ट क्लेश, क्षोभ और दुश्चिन्तायें सताती हैं; इसलिए आवश्यक है कि हम जैसे भी हैं ठीक वैसे ही रूप में संसार के समक्ष प्रस्तुत हों। प्रेम व्यावहारिक जीवन के आनन्द का दूसरा गुण है। प्रेम-विहीन जीवन पशु-पक्षियों की तरह हो जाता है। इसलिए हमें अपनी आत्मा को प्राणिमात्र की आत्मा के साथ जोड़ने का अभ्यास कर अपने जीवन में सरलता बनाये रखनी चाहिए। उसी प्रकार सामाजिक शान्ति और व्यवस्था के लिए न्याय भी आवश्यक है। गायत्री का एकत्रिक इन तीन गुणों की ओर संकेत कर व्यावहारिक जीवन के आनन्द की प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त करता है।
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