आचार्य श्रीराम शर्मा >> गायत्री और यज्ञोपवीत गायत्री और यज्ञोपवीतश्रीराम शर्मा आचार्य
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यज्ञोपवीत का भारतीय धर्म में सर्वोपरि स्थान है।
देखने में यज्ञोपवीत कुछ लड़ों का एक सूत्र मात्र है, जो बायें कन्धे पर पड़ा रहता है। इसमें स्थूल रूप से कोई विशेषता नहीं मालूम पड़ती। बाजार में दो-दो चार-चार रुपये के जनेऊ बिकते हैं। स्थूल दृष्टि से यही उसकी कीमत है तथा मोटे तौर से वह इस बात की पहचान है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य इन तीनों वर्णों में से किसी वर्ण में इस जनेऊ पहनने वाले का जन्म हुआ है। पर वस्तुत: केवल मात्र इतना ही प्रयोजन उसका नहीं है। उसके पीछे एक जीवित-जागृत दर्शन-शास्त्र छिपा पड़ा है, जो मानव-जीवन का उत्तम रीति से गठन, निर्माण और विकास करता हुआ उस स्थान तक ले पहुँचता है, जो जीवधारी का चरम लक्ष्य है। स्थूल दृष्टि से देखने में कई वस्तुयें बहुत ही साधारण प्रतीत होती हैं; पर उनका सूक्ष्म महत्व अत्यन्त ही महत्वपूर्ण होता है। स्थूल दृष्टि से देखने में छपे कागजों का एक बण्डल मात्र है, जो रद्दी पर दो-चार पैसे का ठहरती हैं, पर उस पुस्तक में जो ज्ञान भरा हुआ है, वह इतना मूल्यवान् है कि उसके आधार पर मनुष्य कुछ से कुछ बन जाता है।
'विक्टोरिया क्रास' जो अंग्रेजी सरकार की ओर से बहादुरी का प्रतिष्ठित पदक दिया जाता था वह लोहे का बना होता था और उसकी बाजारू कीमत मुश्किल से एकाध रुपया होगी, पर जो उसे प्राप्त कर लेता था वह आपको धन्य समझता था। परीक्षा में उत्तीर्ण होने पर जो प्रमाण-पत्र मिलते हैं उनके कागज का मूल्य एक-दो पैसे ही होगा, पर वह कागज कितना मूल्यवान है- इसको वह परीक्षोत्तीर्ण छात्र ही जानता है। सरकारी कर्मचारियों के पद की पहचान के लिए धातु के बने अक्षर मिलते हैं जो कि कन्धे या सीने पर कपड़ों में लगा लिये जाते हैं। यह धातु के अक्षर बाजारू कीमत से दो-चार आने के ही हो सकते हैं पर वे कर्मचारी जानते हैं कि उन्हें लगा लेने पर और उतार देने पर उनको जनता कितने अन्तर से पहचानती है। यज्ञोपवीत भी एक ऐसा ही प्रतीक है जो बाजारू कीमत से भले ही कम हो; पर उसके पीछे एक महान् तत्त्वज्ञान जुड़ा हुआ है। इसलिये ऐसा नहीं सोचना चाहिए कि जनेऊ पहनना कन्धे पर एक डोरा लटका लेना है, वरन् इस प्रकार सोचना चाहिए कि मनुष्य की दैवी जिम्मेदारियों का एक प्रतीक हमारे कन्धे पर अवस्थित है।
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