आचार्य श्रीराम शर्मा >> गायत्री और यज्ञोपवीत गायत्री और यज्ञोपवीतश्रीराम शर्मा आचार्य
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यज्ञोपवीत का भारतीय धर्म में सर्वोपरि स्थान है।
किसी भी दृष्टि से विचार कीजिए मनुष्य-जीवन की महत्ता सब प्रकार से असाधारण है। कहते हैं कि चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करने के बाद नर-देह मिलती है, यदि इसे व्यर्थ गवाँ दिया जाय तो पुन: कीट-पतंगों की चौरासी लाख योनियों में भटकने के लिए जाना पड़ता है। कहते हैं कि गर्भस्थ बालक जब रौरव नरक की यातना से दुःखी होकर भगवान् से छुटकारे की याचना करता है, तो इस शर्त पर छुटकारा मिलता है कि संसार में जाकर जीवन का सदुपयोग किया जायेगा। कहते हैं कि मनुष्य की रचना परमात्मा ने इस उद्देश्य से की है कि वह मेरा सर्वश्रेष्ठ उत्तराधिकारी राजकुमार सिद्ध हो और ऐसे कार्य करे, जो मेरी महिमा प्रकट करते हों। कहते हैं कि आत्मा का सर्वश्रेष्ठ विकास मानव प्राणी में होता है, इसलिए उसका आचरण ऐसा होना चाहिये, जिससे ईश्वर अंश जीव की महानता प्रकट हो।
हमारे पूर्वजों ने इस तथ्य को अपनी दूर-दृष्टि से, अपने योगबल से, पहले ही भली प्रकार समझ लिया था। उनने चिरकालीन विचार-मन्थन और सूक्ष्म दृष्टि से सृष्टि की प्रत्येक बात का गम्भीर परीक्षण करके - यह निष्कर्ष निकाला था कि जन्म से मनुष्य भी पशु-पक्षियों के समान शिश्नोदर परायण होता है, पेट भरने और क्रीड़ा करने की इच्छायें उसे प्रधान रूप से सताती हैं यदि कोई विशेष प्रयत्न करके उसे ऊँचा न उठाया जाय तो वह कितना ही चतुर क्यों न कहलाये, पाशविक वृत्तियों के आधार पर ही जीवन व्यतीत करेगा। चूँकि इस प्रकार की जीवनचर्या अत्यन्त ही तुच्छ और अदूरदर्शितापूर्ण है: इसलिए यही कल्याणकर है कि मनुष्यों को इस निम्न धरातल से ऊंचा उठकर उस भूमिका में अपना स्थान बनाना चाहिए जो उच्च है, आदर्शपूर्ण है, धर्ममयी है और अनेक सत्परिणामों को उत्पन्न करने वाली है। यह स्थिति जन्म-जात पशु-वृत्तियों की क्रिया-शैली से बहुत भिन्न है, दोनों में आकाश-पाताल का अन्तर है, इसलिए इस एक स्थिति से दूसरी स्थिति में पदार्पण करने की परिवर्तन-पद्धति को 'उपनयन' कहा गया है।
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