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आचार्य श्रीराम शर्मा >> गायत्री और यज्ञोपवीत

गायत्री और यज्ञोपवीत

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :67
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9695
आईएसबीएन :9781613013410

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यज्ञोपवीत का भारतीय धर्म में सर्वोपरि स्थान है।


उपवीत में तीन प्रथम ग्रन्थियाँ और एक ब्रह्म-ग्रन्थि होती है। गायत्री में तीन व्याहृतियाँ (भू भुव: स्व:) और एक प्रणव (ॐ) है। गायत्री के आरम्भ में ओंकार और भू भुव: स्व: का जो तात्पर्य है, उसी ओर यज्ञोपवीत की तीन ग्रन्थियाँ संकेत करती हैं। उन्हें समझने वाला जान सकता है कि यह चार गाँठ मनुष्य जाति के लिए क्या-क्या संदेश देती हैं। इस महाविज्ञान को सरलता पूर्वक हृदयंगम करने के लिए चार भागों में विभक्त कर सकते हैं।

(1)  प्रणव तथा तीनों व्याहृतियाँ अर्थात् यज्ञोपवीत की चारों ग्रन्थियाँ

(2) गायत्री का प्रथम चरण अर्थात् यज्ञोपवीत की प्रथम लड़,

(3)  द्वितीय चरण अर्थात् द्वितीय लड़

(4)   तृतीय चरण अर्थात् तृतीय लड़।

आइये अब इन पर विचार करें।

(1) प्रणव का संदेश यह है- ''परमात्मा सर्वत्र समस्त प्राणियों में समाया हुआ है, इसलिए लोक सेवा के लिये निष्काम भाव से कर्म करना चाहिए और अपने मन को स्थिर तथा शान्त रखना चाहिए।

(2) भूः का तत्व ज्ञान यह है- शरीर अस्थायी औजार मात्र है, इसलिये उस पर अत्यधिक आसक्त न होकर आत्म-बल बढ़ाने का श्रेष्ठ मार्ग का सत्कर्मों का आश्रय ग्रहण करना चाहिए।

(3) भुव: का तात्पर्य है- ''पापों के विरुद्ध रहने वाला मनुष्य देवत्व को प्राप्त करता है। जो पवित्र आदर्शों और साधनों को अपनाता है। वही बुद्धिमान् है।''

(4) स्व: की प्रतिध्वनि यह है- ''विवेक द्वारा बुद्धि से सत्य को जानने, संयम और त्याग की नीति का आचरण करने के लिए अपने को तथा दूसरों को प्रेरणा देनी चाहिए।''

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