आचार्य श्रीराम किंकर जी >> देवदास देवदासशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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कालजयी प्रेम कथा
यहां कलकत्ता का वह कोलाहल नहीं है, वह आमोद-प्रमोद, थियेटर और गाना-बजाना नहीं है।
इसीलिए उसे केवल उसके बचपन की बातें याद आती हैं। मन में प्रश्न उठता था कि क्या यह पार्वती वही पार्वती है? पार्वती मन में सोचती कि क्या यह देवदास बाबू वही देवदास है? देवदास अब प्राय: चक्रवर्ती के मकान की ओर नहीं जाता। किसी दिन वह आँगन में खड़ा होकर बुलाता-'छोटी चाची, क्या करती हो?'
छोटी चाची कहती है -'यहां आकर बैठो।' देवदास कहता-'नहीं, रहने दो चाची, मैं थोड़ा घूमने जा रहा हूँ।'
पार्वती किसी दिन ऊपर रहती और किसी दिन देवदास के सामने पड़ जाती थी। वह जब छोटी चाची के साथ बातचीत करने लगता तो पार्वती धीरे से खिसक जाती थी। सायंकाल के बाद देवदास के घर में दीया जलता था। ग्रीष्म काल की खुली हई खिड़की से पार्वती बहुत देर तक उसी ओर देखा करती थी, किन्तु सिवा उस दीप-प्रकाश के और कुछ नहीं देख पाती थी। पार्वती सदा से आत्माभिमानी है। वह जो यन्त्रणा सहन कर रही है, उसके तिल-मात्र की भी किसी को थाह न देने की उसकी आन्तरिक चेष्टा रहती है। और फिर किसी से कहने-सुनने में लाभ ही क्या? सहानुभूति सहन नहीं हो सकती; और तिरस्कार लांछना! इससे तो मर जाना ही अच्छा है। पिछले वर्ष मनोरमा का विवाह हुआ, किन्तु वह ससुराल नहीं गयी। इसी से बीच-बीच में वह पार्वती से मिलने आ जाया करती थी। पहले दोनों सखियों में ये सभी बातें घुल-घुलकर होती थीं, पर अब वह बात नहीं है। पार्वती उसका साथ नहीं देती। वह या तो ऐसी बातों के छिड़ने पर चुप ही रहती है या टालमटोल कर जाती है।
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