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आचार्य श्रीराम किंकर जी >> देवदास

देवदास

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :218
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9690
आईएसबीएन :9781613014639

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कालजयी प्रेम कथा


लड़कपन ही से यही धारणा थी कि देवदास पर एकमात्र उसी का अधिकार है। अधिकार किसी ने उसके हाथ में सौंपा हो, यह बात नहीं थी। पहले स्वयं भी इसे अच्छी तरह समझ नहीं सकी, अनजाने में ही उसके अधीर मन से दिनो-दिन इस अधिकार को अति नीरवता एवं दृढ़ता के साथ अपनाकर प्रतिष्ठित किया था। अब तक यद्यपि उसका बाहरी रूप आँखों से वह नहीं देख सकी, तथापि आज उसको बेहाथ होते देखकर उसके सारे हृदय में एक भारी तूफान-सा उठने लगा। किन्तु देवदास के सम्बन्ध में यह बात कहना ठीक नहीं। लड़कपन में पार्वती के ऊपर जो दखल पाया था, उसका उसने पूर्ण रूप से उपभोग किया। परन्तु कलकत्ता जाकर काम-काज की भीड और अन्याय और आमोद-प्रमोद में फंसकर वह पार्वती को बहुत-कुछ भूल गया। लेकिन वह यह नहीं जानता कि पार्वती अपने उसी अपरिवर्तित ग्राम्य-जीवन में निश-दिन केवल उसी का ध्यान किया करती है। केवल इतना ही नही, उसने यह स्वप्न में भी नहीं सोचा था कि बाल्य-काल से जिसे हर तरह से अपना जाना, एवं सब सुख-दुख में जिसका बराबर साथ दिया, यौवन की पहली सीढ़ी पर पांव रखते ही उसे इस तरह फिसलना पड़ेगा। किन्तु उस समय विवाह की बात कौन सोचता था? कौन जानता था कि किशोर-बन्धन विवाह-बन्धन के बिना किसी तरह चिर-स्थायी नहीं रह सकता। इसीलिए विवाह नहीं हो सकता - यह सम्बाद उसकी सारी आशा-पिपासा को छिन्न-भिन्न करने के लिए उसके हृदय से खींचातानी करने लगा। देवदास का प्रातःकाल का समय पढ़ने-लिखने में बीतता है। दोपहर में बड़ी गरमी पड़ती है, घर से बाहर निकलना कठिन है, केवल सायंकाल में यदि इच्छा होती तो वह बाहर हवा खाने के लिए जाया करता है। इस समय किसी दिन वह धोती-कुरता और एक अच्छा-सा जूता पहनकर हाथ में छड़ी लेकर टहलने के लिए निकलता। जाते समय वह चक्रवर्ती के मकान के नीचे से होकर जाता था। पार्वती ऊपर बंगले से आँसू पोंछती हुई उसे देखती थी। कितनी ही बातें उसके मन में उठती थीं। मन में उठता था कि दोनों बड़े हुए। बहुत दिन परदेस में रहने के कारण दोनों एक-दूसरे से बड़ी लज्जा करते हैं। देवदास उस दिन इसी तरह चला गया, लज्जा के कारण इच्छा रहते हुए भी वह कोई बात नहीं कर सका। यह बात पार्वती भी समझने से नहीं चूकी। देवदास भी प्राय: इसी भांति सोचता था। बीच-बीच में उसके साथ बातचीत करने और देखने के लिए इच्छा भी होती थी, किन्तु साथ ही यह भी ख्याल होता था कि क्या यह अच्छा दीखेगा?

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