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आचार्य श्रीराम किंकर जी >> देहाती समाज

देहाती समाज

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :245
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9689
आईएसबीएन :9781613014455

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ग्रामीण जीवन पर आधारित उपन्यास

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सौ वर्ष पूर्व, बाबू बलराम मुखर्जी तथा बलराम घोषाल विक्रमपुर गाँव से साथ-साथ आ कर कुआँपुर में आ बसे थे। संयोग की बात थी दोनों अभिन्न मित्र भी थे और दोनों का नाम भी एक ही था। मुखर्जी बाबू बुद्धिमान और प्रतिष्ठित कुल के थे। उन्होंने अच्छे घर में शादी करके और सौभाग्य से अच्छी नौकरी भी पा कर यह संपत्ति बनाई थी। शादी-ब्याह व गृहस्थी का जीवन तो घोषाल बाबू का भी बीता था पर वे आगे ने बढ़ सके। कष्ट में ही उनका सारा जीवन बीत गया। उनके ब्याह के मसले पर ही दोनों में कुछ मनमुटाव हो गया था और उसने इतना भयंकर रूप धारण कर लिया कि उस दिन के बाद से पूरे बीस वर्ष तक वे जिंदा रहे, पर एक ने भी किसी का मुँह नहीं देखा। जिस दिन बलराम मुखर्जी का स्वर्गवास हुआ, उस दिन भी घोषाल बाबू उनके घर नहीं गए। पर उनकी मृत्यु के दूसरे दिन ही, एक अत्यंत विस्मयजनक समाचार सुन पड़ा कि वे मरते समय अपनी संपत्ति का आधा भाग अपने पुत्र को और आधा अपने मित्र के पुत्र को दे गए हैं। तभी से कुआँपुर की जायदाद पर दोनों परिवारों का अधिकार चला आ रहा है। इस बात पर उनको भी गर्व है और गाँववाले भी इसे मानते हैं। जिस समय की बात हम कह रहे हैं उस समय घोषाल परिवार भी दो भागों में बँट चुका था। अभी कई दिन हुए, तब उसी परिवार के तारिणी घोषाल मुकदमे के काम से शहर कचहरी गए थे, पर उनको तो बड़ी कचहरी का बुलावा आ गया था और वे वहाँ चले गए। उनके इस असमय स्वर्गवास हो जाने पर कुआँपुर में ही नहीं, आस-पास भी हलचल मच गई। तारिणी घोषाल परिवार बँटवारे की छोटी शाखा से थे; और बड़ी शाखा से वेणी घोषाल हैं, जिन्होंने उनकी मृत्यु पर संतोष की साँस ली। उन्होंने चुपके-चुपके ही जुगाड़ लगाया कि किसी तरह उनके श्राद्ध में गड़बड़ी मच जाए। तारिणी रिश्ते में वेणी के चाचा होते थे। पिछले दस वर्षों से चाचा-भतीजों में भी अनबन थी और महीनों तक किसी ने एक-दूसरे का मुँह भी न देखा था। तारिणी घोषाल की गृहिणी दस वर्ष पहले ही मर चुकी थी। तब उन्होंने अपने पुत्र को तो मामा के पास भेज दिया था और स्वयं अकेले ही, नौकर-चाकर और नौकरानियों के साथ सब काम सँभालते, मुकदमे वगैरह करते-कराते दिन काटते रहे। रमेश को जब उनकी मृत्यु का समाचार मिला उस समय वह रुड़की कॉलेज में थे। एक अरसे के बाद वह अपने गाँव-समाचार मिलते ही-चल पड़े और अंतिम संस्कार आदि करने को कल तीसरे पहर अपने घर आ पहुँचे।

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