आचार्य श्रीराम किंकर जी >> देहाती समाज देहाती समाजशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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ग्रामीण जीवन पर आधारित उपन्यास
सुन कर भैरव विस्मयान्वित नेत्रों से सरकार जी के मुँह की तरफ देखता रहा। उसे इस तरह देखता देख, सरकार ने आगे जरा व्यंग्यभरी मुस्कान से कहा-'आचार्य जी, आँखें क्यों फाड़ रहे हो? उस दिन वह हाट की उत्तर तरफ वाला, बड़ा-सा एक इमली का पेड़ कटवा कर, उन दोनों ही घरों ने आपस में बाँट लिया। मैंने आ कर बाबू से कहा, तो वे किताब पढ़ते हुए जरा देर को सिर उठा कर थोड़ा-सा मुस्करा दिए और फिर किताब पढ़ने लगे, बिना एक शब्द भी मुँह से निकाले! हमें उस पेड़ का पत्ता तक भी न मिला। जब मैंने कई बार कहा, तब उन्होंने एक लंबी-सी उसाँस लेकर कहा कि क्या हमारे यहाँ इमली के और पेड़ नहीं? मैंने कहा भी कि पेड़ तो अपने पास बहुत हैं, पर अपना हिस्सा है, उसे तो लेना ही चाहिए! पाँचेक मिनट मौन रह कर, उन्होंने मुस्करा कर कह दिया-'यह सब कुछ ठीक होते हुए भी, दो-चार लकड़ियों के पीछे झगड़ा क्यों किया जाए!'
भैरव की विस्मित आँखें और चकित हो कर फट गईं, बोले-'कहते क्या हैं आप यह?'
'मैंने तो सच ही कहा है। उसी दिन समझ पाया और समझ लिया कि ऐसी बातों के लिए इनसे कुछ भी कहना धूल में लट्ठ मारना है। सच तो यह है आचार्य जी, कि इस घर की लक्ष्मी तो चली गई तारिणी बाबू के साथ ही!'
भैरव कुछ देर मौन रह बोले-'मेरा तो फर्ज था कहने का, क्योंकि वह ताल मेरे घर के पीछे ही पड़ता है।'
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