आचार्य श्रीराम किंकर जी >> देहाती समाज देहाती समाजशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
|
4 पाठकों को प्रिय 80 पाठक हैं |
ग्रामीण जीवन पर आधारित उपन्यास
'भला मैं क्यों चूकता! अरे, वह बड़ा है तो अपने घर का होगा और फिर हमारा रमेश किसी से क्या कम है? उसके घर से भला एक मुट्ठी चिड़वा भी जो कभी मिल जाए किसी को!' मैंने तपाक से उत्तर दिया-'घबराते क्यों हो? रमेश के घर से लौटने और जाने का रास्ता तो यहीं हो कर है। जब दीन-दु:खी भिक्षा लेकर लौटने लगें, तब दरवाजे पर खड़े हो कर जरा देखना। आँखें फटी-की-फटी रह जाएँगी! रमेश की उम्र कम है तो क्या, दिल पाया है उसने! इतनी उमर तक तो इन आँखों ने कभी इतनी जबरदस्त तैयारी देखी नहीं है। पर धर्मदास, सच पूछो तो तारिणी भैया का ही सारा प्रताप है! वे ही सब कुछ करा रहे हैं, ऊपर बैठे-बैठे।'
धर्मदास का दिल मसोस कर रह गया, जब उन्होंने देखा कि गोविंद गांगुली तो इतनी ढेर-सी चुपड़ी बातें कह गया, और वे खाँसते ही रह गए। वे जितना अधिक आवेश में आते, खाँसी उतनी ही और भी जोर मारती। वे आगे कुछ कहने को अत्यंत व्यग्र हो उठे, पर घंटों खाँसते ही रह गए। गांगुली महाशय ने बातों की दूसरी किश्त शुरू की। बोले-'भैया, तुम्हारी माँ जो थीं न वे हमारी सगी फुफेरी बहन की ममेरी बहन थीं, राधानगर के बनर्जी के घर की! हमारा तुम्हारा तो अपना-सा मामला है! तारिणी भैया की तो पूछो मत! हर बात में बुलाओ गोविंद को, बुलाओ गोविंद को! चाहे मामला-मुकदमा हो, चाहे और कोई काम।'
धर्मदास अपनी बात कहने को छटपटाने लगे। उन्होंने पूरी कोशिश से खाँसी को रोका और बोले-'क्यों बेकार की बातें मारते हो, गोविंद! मैंने भी यहाँ जिंदगी काटी है। सब जानता हूँ। जब उस साल गवाही में चलने की बात चली तो बोले कि पैर में जूता नहीं है! बिना जूता कैसा जाया जाएगा और जब तारिणी भैया ने जूता दिलवा दिए, तब शहर जा कर वेणी की तरफ से गवाही दे आए थे।' कह कर धर्मदास खाँसने लगे।
गोविंद ने पोल खुलती देख, लाल-पीली आँखें कर कहा-'मैंने दी थी गवाही?'
|