जीवनी/आत्मकथा >> क्रांति का देवता चन्द्रशेखर आजाद क्रांति का देवता चन्द्रशेखर आजादजगन्नाथ मिश्रा
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स्वतंत्रता संग्राम सेनानी चंद्रशेखर आजाद की सरल जीवनी
कल शाम से ही खुफिया विभाग का एक इन्सपैक्टर तिवारी के पीछे लगा हुआ था। जैसे ही साढ़े नौ वजे के लगभग तिवारी और आजाद केनिंग रोड से होते हुछ पार्क रोड और केनिंग रोड के तिराहे के पास से अल्फ्रेड पार्क में घुसे उसने कोतवाली को सूचना दे दी। वहां सारे नगर की पुलिस पहले से ही जमा थी। कुछ मिनटों में ही उसने आकर पार्क को घेर लिया। फिर घेरा छोटा करते-करते आजाद के चारों ओर पुलिस पहुंच गई।
पुलिस को देखकर आजाद ने कहा, ''तिवारी! यह पुलिस यहाँ कैसे आई है?''
तिवारी ने कुछ आश्चर्य-सा, दिखाते हुए उत्तर दिया, ''पता नहीं भइया। चलो हम लोग यहाँ से दूर चलें!''
किन्तु आजाद ने जिधर देखा, उधर ही पुलिस थी। कुछ मिनटों में ही पुलिस ने उनपर गोलियों की बौछार करना आरम्भ कर दिया। अब उसे चिन्ता नहीं थी, भले ही उनका मुखबिर तिवारी भी मरे तो मर जाये। वह हाथ आए अवसर को कैसे छोड़ सकती थी? उसे डर था, शेर जाल में न फंसा तो दस-बीस का खून कर देगा क्योंकि तनिक-सी भी चूक में आजाद की निशानेबाजी अपना करिश्मा दिखा सकती थी।
तिवारी भी समझ गया, पुलिस को उसके मरने-जीने की कोई चिन्ता नहीं है। वह अपने कुकृत्य पर मन ही मन बहुत पछता रहा था। किन्तु अब उससे लाभ ही क्या था? उसे तो इस समय भी डर था, कहीं आजाद को इस समय तनिक-सा भी सन्देह हो गया तो उसकी जान विधाता भी नहीं बचा सकता। इसलिए उसे अब भी पुलिस की गोली से अधिक आजाद की ही गोली का डर था। उसने अपने बचाव के लिए फिर एक अभिनय किया। ''भइया. जरूर उस सेठ की ही कोई बदमाशी मालूम होती है। चलो कैसे भी यहाँ से निकल चलें।''
प्रकृति का नियम है, वीरों का हृदय निर्मल होता है। वे दूसरों को भी अपने जैसा समझते हैं। इसलिए आजाद को इस दुष्ट पर अब भी कोई संदेह नहीं हुआ। वह उससे बोले, ''तिवारी! तुम भाग जाओ। फिर मैं इन सबको देख लूंगा।''
उसने अन्तिम बार अपनी सुरक्षा के लिए एक शतरंजी चाल चली, ''नहीं भइया, मैं तुम्हें छोडकर नहीं जा सकता।''
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