जीवनी/आत्मकथा >> क्रांति का देवता चन्द्रशेखर आजाद क्रांति का देवता चन्द्रशेखर आजादजगन्नाथ मिश्रा
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स्वतंत्रता संग्राम सेनानी चंद्रशेखर आजाद की सरल जीवनी
सिर पर बैठा लालच बोला, 'अरे फिर बहकने लगा। उधर वे लोग तेरी प्रतीक्षा में बैठे हैं। केवल कुछ घंटों की ही बात तो रह गई है। थोड़ा-सा और हृदय को कठोर बनाये रख फिर सब ठीक हो जायेगा। जीवन भर मौज की छनेगी।''
वह बहुरूपिया नम्रता से प्रकट रूप में बोला, ''भइया! मैं आपका गुलाम हूं। मैं हूं ही किस योग्य? आप जैसे तपस्वी देशभक्त की सेवा का यदि कुछ भी सौभाग्य प्राप्त हो सके तो मेरे लिए खुशी की बात इससे वढ़कर और क्या हो सकती है! मैं तो आपकी सेवा में ही मातृभूमि की सेवा समझता हूं।''
''भाई यह तो तुम्हारी उदारता है। आज आजाद वह आजाद नहीं है जो कुछ दिनों में ही ब्रिटिश सरकार का तख्ता उलट देने का इरादा रखता था। आज तो वह बिना सेना का सेनापति है।''
''भइया! निराश होने की कोई बात नहीं है। योग्य सेनापति को सेना इकट्ठी करने में समय नहीं लगता। सैनिक स्वयं ही उसके पास आकर, उसकी सेवा में रहने को अपना व देश का सौभाग्य समझते हैं। मुझे पूर्ण विश्वास है एक दिन फिर आजाद की तूती वोलेगी और ब्रिटिश साम्राज्य का तख्ता उलटकर ही रहेगा। हमारे प्रिय आजाद के कर-कमलों से ही मातृभूमि का उद्धार होगा।''
संसार में यदि चाटुकारी न होती तो भी हम वहुत से बड़े-बड़े अनर्थों से बच जाते। कोई कितना भी कहे कि - वह चाटुकारी को पसन्द नहीं करता, किन्तु प्रत्यक्ष न सही तो अप्रत्यक्ष रूप से सभी इसके जाल मे फँसते देखे गए हैं। तिवारी की बातों से आजाद का साहस तो बढ़ा किन्तु साथ ही उसका, उसके प्रति झूठा विश्वास भी और अधिक दृढ हो गया।
''अब क्या करना है?'' आजाद ने पूछा।
''अभी मैं और आप यहाँ से चलते हैं। आप अल्फ्रेड पार्क में छिप कर बैठ जाना। सेठ ने मुझसे वहीं दरभंगा हाउस के पास साढ़े दस बजे मिलने को कहा है। वह वहीं रुपया लेकर आयेगा। मैं नहीं चाहता कि उसे आपके वहाँ आने की कोई खबर दी जाए। हमें अपना काम बहुत सोच समझकर करना है। इस जमाने में किसी का विश्वास नहीं करना चाहिए। कौन जाने, किसके मन में क्या है?''
''क्या वह तुम्हें अकेले ही रुपया दे देगा।''
''उसने वचन तो दिया है कि वह रुपया मुझे ही देगा और मुझ से ही आपकी ओर से रसीद ले लेगा। इतने पर भी अगर उसने कोई आनाकानी की तो जैसा मौका होगा वैसा ही देखा जाएगा।''
''ठीक है चलो!''
दोनों नाव में बैठकर सरस्वती घाट की ओर चल दिए। एक के मन में दूसरे के प्रति विश्वास था, वह निडर था। दूसरा विश्वासघात करने जा रहा था, उसका हृदय काँप रहा था। वह डर रहा था- कहीं यह किसी तरह तेरे मन के भावों को ताड़ तो नहीं रहा है। अगर इसे तनिक भी संदेह हो गया तो इसके गिरफ्तार होने से पहले मुझे ही यह दुनियां छोड़ देनी पडेगी।'
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