आचार्य श्रीराम किंकर जी >> चमत्कार को नमस्कार चमत्कार को नमस्कारसुरेश सोमपुरा
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यह रोमांच-कथा केवल रोमांच-कथा नहीं। यह तो एक ऐसी कथा है कि जैसी कथा कोई और है ही नहीं। सम्पूर्ण भारतीय साहित्य में नहीं। यह विचित्र कथा केवल विचित्र कथा नहीं। यह सत्य कथा केवल सत्य कथा नहीं।
वास्तविकता यह है कि किसी भी मन्त्र का दुरुपयोग करने वाला, अन्त में अपने जीवन को नरक जैसा बना डालता है। मन्त्र का दुरुपयोग होते ही साधक का अवचेतन मन उसकी भर्त्सना करता है। अवचेतन मन की शक्ति तो चेतन मन से भी अधिक है। अवचेतन की भर्त्सना से साधक का विवेक समाप्त होने लगता है आत्म-बल में घुन लग जाता है और वह मृत्यु के आलिंगन से पहले बुरी तरह तडपता है। उसकी यातना ऐसी होती है कि देखी न जाये।
प्रारम्भ में मेरी इच्छा नहीं थी कि कर्ण-पिशाचिनी की साधना की पद्धति यों सरेआम प्रकट कर दूँ किन्तु मैंने देखा कि लोग किसी-न-किसी उपाय से कर्ण-पिशाचिनी के मन्त्र हथिया लेते हैं और उनकी मनचाहे ढंग से साधना करके दुष्परिणाम भुगतते हैं। ऐसे लोगों को दुर्भाग्य के शिकंजे से बचाने के लिए ही मैंने कर्ण-पिशाचिनी की पद्धति प्रकट कर देना अनुचित नहीं समझा। जो पद्धति मुझे ज्ञात है, उसे मैंने प्रकट तो कर दिया है, किन्तु चेतावनी देना चाहूँगा कि केवल पढ़कर ही कोई व्यक्ति इस मन्त्र-साधना के फेर में न पड़े। योग्य गुरु के मार्गदर्शन के बिना इस साधना को करना, अन्त में, घोर दुष्परिणाम को ही आमन्त्रित करेगा। इसके अलावा- कर्ण-पिशाचिनी अथवा किसी भी अन्य मन्त्र की साधने से पहले व्यक्ति को यह निश्चित कर लेना चाहिए कि वह कैसी सिद्धि तक पहुँचना चाहता है। उस सिद्धि तक पहुँचने के बाद भी आगे बढ़ना, प्राय: अनुचित ही होता है। साधक को अकसर अपनी सिद्धि से सन्तोष नहीं मिलता। वह आगे से और आगे बढना चाहता है और पछताता है।
यदि साधक केवल इतना चाहता है कि दूसरों के मन की बातें जान लिया करे, तो सबसे पहले उसे यह प्रतिज्ञा करनी होगी कि अपनी जानकारी का दुरुपयोग वह किसी प्रकार नहीं करेगा। न उस जानकारी का लाभ लेकर वह अपने किसी स्वार्थ की पूर्ति ही करेगा। आत्म-बल को आधार देने के लिए किसी अति प्रिय वस्तु का त्याग करना आवश्यक है। मसलन, भोजन में कोई खास वस्तु आपको अत्यधिक प्रिय है। उसका त्याग कर दें। व्यसनी व्यक्तियों को यह साधना सिद्ध नहीं होती। सिगरेट, शराब, तम्बाकू पान और सुपारी जैसे व्यसन यदि हैं, तो उनके पूर्ण त्याग के बिना आगे बढना न तो उचित है और न सम्भव।
सप्ताह के प्रथम दिवस से, यानी सोमवार से, कर्ण-पिशाचिनी की साधना प्रारम्भ करने की सलाह दी जाती है। कारण स्पष्ट है। सप्ताह का प्रारम्भ और मन्त्र-साधना का प्रारम्भ दोनों के मिलने से साधक का उत्साह बढ़ता है। जिस प्रकार सुबह के समय, यानी दिन के प्रारम्भ के समय, किसी भी व्यक्ति में अधिक उत्साह होता है, उसी प्रकार सप्ताह के प्रारम्भ, मास अथवा वर्ष के प्रारम्भ आदि का भी सम्बंध व्यक्ति के उत्साह एवं आत्म-बल के साथ सीधा-सीधा जुड़ता है। नहा-धोकर पवित्र हो जायें। प्रथम दिन उपवास करें। उपवास शरीर की आन्तरिक एवं बाह्य पवित्रता की ही पद्धति है. जो मन की पवित्रता को तुरन्त प्रभावित करती है। न्यूनतम सवा लाख मन्त्रों का जाप अनिवार्य है। यदि आप यह साधना चालीस दिनों में करना चाहते हैं. तो सवा लाख की संख्या को चालीस से विभाजित करके, प्रतिदिन एक जैसी संख्या में मन्त्रों का जाप करें।
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