आचार्य श्रीराम किंकर जी >> चमत्कार को नमस्कार चमत्कार को नमस्कारसुरेश सोमपुरा
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यह रोमांच-कथा केवल रोमांच-कथा नहीं। यह तो एक ऐसी कथा है कि जैसी कथा कोई और है ही नहीं। सम्पूर्ण भारतीय साहित्य में नहीं। यह विचित्र कथा केवल विचित्र कथा नहीं। यह सत्य कथा केवल सत्य कथा नहीं।
जो मोटरगाड़ी हमारे लिए आने वाली थी, वह आ पहुँची। वह एक स्थानीय भक्त की कार थी। एक प्रौढ़ पुरुष, जो देखने में व्यापारियों जैसा लगता था और जो स्वच्छ, सुन्दर, कीमती कपड़े पहने हुए था, उस कार को स्वयं चलाकर लाया था। दीदी उससे पूर्व-परिचिता थीं। उसी प्रौढ के मुँह से सुनने को मिला कि गुरुदेव पिछली संध्या को ही पधारे हैं।
चारेक घण्टों की यात्रा के बाद हम एक विशाल मन्दिर के सामने आ पहुँचे। मन्दिर पुराने जमाने का मालूम पड़ा। उसके आसपास लोगों के रहने के जो मकान थे, वे भी नीची छतों वाले थे, पुरानी शैली के। मकानों और मन्दिर के बीच में एक चौगान था। उसे चारों तरफ से ऊँची दीवार से घेर लिया गया था। सोलह-सत्रह वर्ष के दो किशोरों ने आकर हमारा सामान ले लिया।
कार से उतरते ही दीदी ने मेरा हाथ दबाते हुए कहा, 'देखिए, सामने गुरुदेव आ रहे हैं।'
हाथ जोडकर, नमन की मुद्रा में नत-मस्तक होकर दीदी खड़ी हो गईं। अचानक आमना-सामना होने से मैं गुरुदेव की तरफ ताकता रह गया था।
भीमकाय मजबूत शरीर। काले, मुक्त केश कमर तक पहुँच रहे थे। शरीर ताँबे की तरह चिकना और कसा हुआ। कमर पर वह केवल कोपीन पहने हुए थे। गले में रुद्राक्ष की माला। बाजूबन्द की जगह भी रुद्राक्ष की माला। ऐसी ही माला कलाई पर भी। आँखों में असीम वेधकता। नाक बहुत ही लम्बी और नीचे की तरफ झुकी-झुकी।
सहसा उन्होंने एक विचित्र हरकत की। लाल जीभ मुँह से निकालकर, उसके छोर से उन्होंने अपनी नाक को छूआ। उनके हाथ में एक पात्र था। जरा नजदीक जाने पर ही मुझे पता चला, वह एक मानव-खोपड़ी थी।
मेरे शरीर में झुरझुरी दौड़ गई।
एकदम नजदीक आने के बाद वह मुझसे बोले- आखिर आ ही गये तुम!'' उस वक्त इस वाक्य के पीछे छिपा रहस्य मैं ठीक से समझ नहीं पाया था। उस वक्त तो दीदी के अनुसरण में मैंने भी उनके समक्ष अत्यन्त नम्रता से हाथ जोड दिये थे।
दीदी ने उनका परिचय मुझे दिया, ''हमारे गुरुदेव श्री चैतन्यानन्द जी! ''
मैंने नजरें उठाकर उनकी ओर देखा। उनका हास्य ऐसा था कि कभी भूला न जा सके। मैंने दीदी से कहा, ''और...... मेरा परिचय नहीं देंगी इन्हें?''
'आवश्यकता नहीं है?' चैतन्यानन्द जी ने ही उत्तर दिया। उनके इन शब्दों में जो रहस्यमय चुनौती-सी थी, उसने मुझे चक्कर में डाल दिया।
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