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आचार्य श्रीराम किंकर जी >> चमत्कार को नमस्कार

चमत्कार को नमस्कार

सुरेश सोमपुरा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :230
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9685
आईएसबीएन :9781613014318

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यह रोमांच-कथा केवल रोमांच-कथा नहीं। यह तो एक ऐसी कथा है कि जैसी कथा कोई और है ही नहीं। सम्पूर्ण भारतीय साहित्य में नहीं। यह विचित्र कथा केवल विचित्र कथा नहीं। यह सत्य कथा केवल सत्य कथा नहीं।

इसके बाद, थोड़ी ही देर में मुझे नींद आ गई। क्या यह नींद दीदी की इच्छानुसार ही आई थी? फिसलकर मैं एक विचित्र स्वप्न-सृष्टि में पहुँच गया। पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण से छूटकर मैं ब्रह्माण्ड में निकल गया था। भारहीन होकर मैं शून्य में तैर रहा था। दूर, बहुत दूर, प्रकाश के सूक्ष्म बिन्दु टिमटिमा रहे थे। मेरे आसपास, सर्वत्र, अन्धकार ही था। उस अन्धकार में दीदी के शब्द घनीभूत होकर तैर रहे थे... शाश्वत तो अन्धकार ही है... प्रकाश-केवल भ्रम!

सहसा... कोलाहल से आँखें खुल गईं। कोई स्टेशन था। सुबह होने में देर नहीं थी। चारेक घण्टों की यात्रा अभी शेष है, ऐसा दीदी ने बताया।

अचानक धडाम की आवाज हुई।

''क्या हुआ? क्या हुआ? '' कहते हुए अनेक यात्री उठ पड़े।

हमारे पीछे, सीट के ऊपर सामान रखने की जो जगह थी, वहाँ एक बच्ची सोई हुई थी। नींद में उसने करवट बदली और धड़ाम से नीचे आ गिरी। मैं भी उठा और उसके पास पहुँचा।

लोहे के सन्दूक का कोना लडकी के सिर पर बहुत जोर से लगा था। सिर फट गया था। खून की धारा बहे जा रही थी। सहसा लड़की के हाथ-पैर इस प्रकार ऐंठने लगे, जैसे उसे मिरगी आ रही हो।

किसी ने लपककर चेन खींच दी, ताकि ट्रेन यदि रवाना होने को हो, तब भी न हो। किसी ने सुराही से पानी लेकर लड़की के चेहरे पर छाँटना शुरू किया। कोई चिल्लाया, 'गार्ड को बुलाकर लाओ। उसके पास दवा होगी।'

मैं आशंकित था, चोट कहीं लडकी के मस्तिष्क तक न पहुँच गई हो। उसका ऐंठता शरीर मुझसे देखा नहीं जा रहा था। तुरन्त मुझे अम्बिकादेवी की याद आई। वह अपनी दिव्य शक्ति से लड़की को क्षणमात्र में उबार सकती है। मैं लौटकर उनके पास आया और बोला. 'दीदी! लड़की कहीं मर-मरा न जाये। आप कुछ करिए न।

''मरने दो। हमें कुछ भी करने की जरूरत नहीं।' दीदी ने इतनी लापरवाही और रुक्षता से कहा कि मुझे भयानक आश्चर्य हुआ।

''लेकिन दीदी.......। ''चुप रहिए! एक बार कह दिया न? एक शब्द भी न बोलियेगा। हमें बीच में पड़ने की बिल्कुल जरूरत नहीं है। समझे?''

और मैंने, दीदी की आँखों में पहली बार क्रोध और धमकी के दर्शन किये। मैं सन्न रह गया।

गार्ड आया। उसने लड़की की मरहम-पट्टी की।

मेरे मन में हाहाकार होने लगा था। अम्बिकादेवी का व्यवहार मेरी समझ में बिल्कुल नहीं आ रहा था। इस मासूम बच्ची ने महायोगिनी का क्या बिगाडा था? क्यों महायोगिनी ने इसे अपने मन्त्रों का सहारा न दिया? यदि सिद्धियाँ ऐसे अवसर पर भी छिपाकर रखी जायें, तो उनका अर्थ ही क्या रह जायेगा?

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