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चमत्कारिक दिव्य संदेश

उमेश पाण्डे

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :169
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9682
आईएसबीएन :9781613014530

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सम्पूर्ण विश्व में भारतवर्ष ही एक मात्र ऐसा देश है जो न केवल आधुनिकता और वैज्ञानिकता की दौड़ में शामिल है बल्कि अपने पूर्व संस्कारों को और अपने पूर्वजों की दी हुई शिक्षा को भी साथ लिये हुए है।

हमें अपना स्वभाव कैसा बनाना चाहिए?

एक बार भगवान श्रीकृष्ण पाण्डवों के साथ बातचीत कर रहे थे। भगवान उस समय कर्ण की उदारता की बार-बार प्रशंसा करते थे। यह बात अर्जुन को अच्छी नहीं लगी। अर्जुन ने कहा- श्याम सुन्दर! हमारे बड़े भाईराजजी से बढ़कर उदार तो कोई है नहीं, फिर आप उनके सामने कर्ण की इतनी प्रशंसा क्यों करते हैं?'

भगवान ने कहा- यह बात मैं तुम्हें फिर कभी समझा दूँगा।' कुछ दिनों बाद अर्जुन को साथ लेकर भगवान श्रीकृष्ण धर्मराज युधिष्ठिर के राज भवन के दरवाजे पर ब्राह्मण का वेश बनाकर पहुँचे। उन्होंने धर्मराज से कहा- हमको एक मन चन्दन की सूखी लकड़ी चाहिए। आप कृपा करके मँगा दें।'

उस दिन जोर की वर्षा हो रही थी। कहीं से भी लकड़ी लाने पर वह अवश्य भीग जाती। महाराज युधिष्ठिर ने नगर में अपने सेवक भेजे, किन्तु संयोग की बात ऐसी रही कि कहीं भी चन्दन की सूखी लकड़ी सेर-आधा सेर से अधिक नहीं मिली। युधिष्ठिर ने हाथ जोड़कर प्रार्थना की- 'आज सूखा चन्दन मिल नहीं रहा है, आप लोग कोई और वस्तु चाहें तो तुरन्त दी जा सकती है।'

भगवान ने कहा- सूखा चन्दन नहीं मिलता तो न सही, हमें कुछ और नहीं चाहिए।

वहीं से अर्जुन को साथ लिए उसी ब्राह्मण के वेश में भगवान कर्ण के यहाँ पहुँचे।

कर्ण ने बड़ी श्रद्धा से उनका स्वागत किया। भगवान ने कहा- हमें इसी वक्त एक मन सूखी चन्दन की लकड़ी चाहिए।

कर्ण ने दोनों ब्राह्मणों को आसन पर बैठाकर उनकी पूजा की। फिर धनुष चढ़ाकर उन्होंने बाण उठाया। बाण मार-मारकर कर्ण ने अपने सुन्दर महल के मूल्यवान किवाड़, चौखटे, पलंग आदि तोड़ डाले और लकड़ियों का ढेर लगा दिया। सब लकड़ियाँ चन्दन की थीं। यह देखकर भगवान ने कर्ण से कहा- तुमने सूखी लकड़ियों के लिए इतनी मूल्यवान वस्तुएँ क्यों नष्ट कीं?'

कर्ण हाथ जोडकर बोले- इस समय वर्षा हो रही है। बाहर से लकड़ी मँगाने में देर होगी। आप लोगों को रुकना पड़ेगा। लकडी भीग भी जाएगी। ये सब वस्तुएँ तो फिर बन जाएँगी, किन्तु मेरे यहाँ आये अतिथि को निराश होना पड़े या कष्ट हो तो वह दुःख मेरे हृदय से कभी दूर नहीं होगा।'

भगवान ने कर्ण को यशस्वी होने का आशीर्वाद दिया और वहाँ से अर्जुन के साथ चले आये। लौटकर भगवान ने अर्जुन से कहा- 'अर्जुन! देखो, धर्मराज युधिष्ठिर के भवन के द्वार, चौखटें भी चन्दन की हैं। चन्दन की दूसरी वस्तुएँ भी राजभवन में हैं लेकिन चन्दन माँगने पर भी उन वस्तुओं को देने की याद धर्मराज को नहीं आयी और सूखी लकड़ी माँगने पर भी कर्ण ने अपने घर की मूल्यवान वस्तुएँ तोड़कर लकडी दे दी। कर्ण स्वभाव से उदार है और धर्मराज युधिष्ठिर विचार करके धर्म पर स्थिर रहते हैं। मैं इसी से कर्ण की प्रशंसा करता हूँ।'

इस कथा से यह शिक्षा मिलती है कि परोपकार, उदारता, त्याग तथा अच्छे कर्म करने का स्वभाव बना लेना चाहिए। जो लोग नित्य अच्छे कर्म नहीं करते और सोचते रहते हैं कि कोई बड़ा अवसर आने पर वे महान त्याग या उपकार करेंगे, उनको अवसर आने पर यह बात सूझती ही नहीं कि वह महान त्याग किया कैसे जाये। जब छोटे-छोटे अवसरों पर भी त्याग तथा उपकार करने का स्वभाव बना लेता है, वही महान कार्य करने में भी सफल होता है।

¤ ¤   नीरज गोयल

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