ई-पुस्तकें >> चमत्कारिक दिव्य संदेश चमत्कारिक दिव्य संदेशउमेश पाण्डे
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सम्पूर्ण विश्व में भारतवर्ष ही एक मात्र ऐसा देश है जो न केवल आधुनिकता और वैज्ञानिकता की दौड़ में शामिल है बल्कि अपने पूर्व संस्कारों को और अपने पूर्वजों की दी हुई शिक्षा को भी साथ लिये हुए है।
14. चूँकि दानवीर दधीचि ने सतयुग में अपनी अस्थियों का दान किया था अत: उनकी एक इच्छा थी कि वे त्रेता युग के श्रीरामजी का दर्शन करें। लेकिन परोपकार्थ अस्थियाँ दान करते हुए योग के बल से अपने प्राणों को पिनाक नामक धनुष में स्थापित कर लिया, इसी कारण वह धनुष किसी से न तो उठा न टूटा। इस को यह भी वरदान था कि जिस भावना व स्वभाव से व्यक्ति इसके निकट आयेगा यह वैसा ही बन जायेगा।
धनुष यज्ञ में जितने भी राजा इसे उठाने व तोड़ने का प्रयत्न करने गये वे सब अहंकार के बोल मिथ्याभ्रम के अंधकार में भटके हुए थे। उनकी कठोरता अहं एवं भावना के अनुरूप यह धनुष होता चला गया। लेकिन जब प्रभु श्रीराम श्री गुरू आज्ञा प्राप्त कर विनम्रता व सरलता पूर्वक इस धनुष के समीप आये, तब यह धनुष भी विनम्र व सरल बन गया। महर्षि दधीचि के प्राण इसी क्षण की प्रतिक्षा के लिए इस धनुष में टिके थे। गोस्वामीजी लिखते हैं कि धनुष का उठाना, तानना व तोड़ना ये तीनों क्रिया श्री रघुनाथजी ने कब पूरी कर डाली यह कोई देख नहीं सका। इतनी शीघ्रता से कार्य हुआ। श्रीराम दर्शन से महर्षि दधीचि के प्राण धनुष को त्याग कर श्रीरामचरणों में चले गये। धनुष के टूटने के बाद धनुष के दोनों खण्ड स्वयं ही देवलोक चले गए।
15. महर्षि अगस्त जी द्वारा सिखाये गये 'आदित्य-हृदय' स्तोत्र का पाठ करने के पश्चात् ही श्रीरामजी ने श्री महर्षि अगस्तजी द्वारा प्रदत्त बाण से लंकापति रावण का वध किया था।
16. श्रीरामजी ने 'विजय' नामक मुहूर्त में लंका की ओर प्रस्थान किया था।
17. श्री ब्रह्माजी ने लंकापति रावण के भाई विभीषण को अमर होने क्रा वरदान दिया था।
18. गोस्वामी श्री तुलसीदासजी महाराज ने श्री रामचरित मानस में 18 प्रकार के वाद्यों का वर्णन किया है। यथा-
1. डमरू, 2. ढोल, 3. मृदंग, 4. जुझाऊ ढोल, 5. नगाड़ा, 6. डिंडिंभि 7. पखावज, 8. पनव, 9. झांझ, 10. मजीरा, 11. करताल, 12. घण्टा, 13. घण्टी, 14. बेणु, 15. शंख, 16. तुरही, 17. बीना, 18. गाँडर ताती।
19. श्री विश्वामित्र मुनि जब श्री राम व श्री लक्ष्मणजी को यज्ञ की रक्षा के लिए श्री अयोध्या नरेश दशरथजी से माँगकर ले गये तब उन्होंने जो विद्या श्री रामजी व श्री लक्ष्मणजी को प्रदान की थी वह दो तरह की थी- पहली बला तथा दूसरी अतिबला।
इन विद्याओं के जानकार स्नातक विद्यार्थी को भूख प्यास का वेग कभी नहीं सताता, थकावट कभी नहीं आती तथा शरीर का बल भी नहीं घटता। सदा स्फूर्ति व चैतन्यता बनी रहती है। इस विद्या के सभी मंत्र व विधि 'श्री सावित्र्युपनिषद में दी गई हैं। ऋषि छन्द, न्यास, देवता आदि सहित सम्पूर्ण विधि का वहीं वर्णन प्राप्त होता है। इस विधि के अनुसार कार्य करते हुए मूल मंत्र का प्रतिदिन एक हजार जप 40 दिनों तक किया जाये, तब यह अनुष्ठान पूर्ण होता है। इस प्रकार के चार अनुष्ठान करने पर यह विद्या स्वयं ही साधक को प्राप्त हो जाती है, लेकिन इन सबके लिए किसी सद्गुरू के पावन श्रीचरण कमलों की कृपा व आर्शीवादात्मक निर्देश की महत् आवश्यकता है। यह मुख्य मंत्र 'श्री गायत्री मंत्र ही है।
¤ ¤ पं. ओमप्रकाश शर्मा भारद्वाज
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