लोगों की राय

ई-पुस्तकें >> चमत्कारिक दिव्य संदेश

चमत्कारिक दिव्य संदेश

उमेश पाण्डे

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :169
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9682
आईएसबीएन :9781613014530

Like this Hindi book 4 पाठकों को प्रिय

139 पाठक हैं

सम्पूर्ण विश्व में भारतवर्ष ही एक मात्र ऐसा देश है जो न केवल आधुनिकता और वैज्ञानिकता की दौड़ में शामिल है बल्कि अपने पूर्व संस्कारों को और अपने पूर्वजों की दी हुई शिक्षा को भी साथ लिये हुए है।

जीवाणुओं के प्रकार

यूँ तो जीवाणु सहस्रों प्रकार के होते हैं, तथापि वेदों में मुख्यत: इनके 7 नाम वताये गये हैं। ये हैं राक्षस, पिशाच, यातुधान, कृमिदिन, अत्रि, कण्व और दुर्णामा।

'राक्षस' जीवाणु रात्रि समय चलते हैं, और हमारे प्राण लेने में सक्षम होते हैं। अर्थात् इस प्रकार के जीवाणु अन्धकार में विशेष सक्रिय रहते हैं।

‘पिशाच' वे जीवाणु हैं, जो मांस का भक्षण करते हैं अर्थात् इस प्रकार के जीवाणुओं से तात्पर्य उनसे है, जो हमारे शरीर के मांस में ही क्रियाशील रहते हैं, रक्तादि में नहीं। इनके द्वारा शरीर के मांस का क्षय होता है।

जबकि निरन्तर चलने वाले (सक्रिय रहने वाले) अति खतरनाक प्रकार के कृमि ‘यातुधान' के नाम से वर्णित हैं। इसी प्रकार के जीवाणु जो कि छिद्रान्वेषण बुद्धि से रहते हैं कृमिदिन हैं जबकि राक्षस' और यातुधान'-इन दोनों के गुणों से युक्त जीवाणु दुर्णामा है। राक्षस तथा पिशाच के गुणों से युक्त तथा गर्भ को खा जाने वाले कृमि 'अत्रि' तथा कण्व' हैं।

किसी भी रोग के होने का कारण जीवाणु होते हैं। अर्थात् जीवाणु जब शरीर में प्रवेश करते हैं, तो शरीर रोगग्रस्त हो जाता है। आधुनिक विज्ञान में इन्हें ही 'वायरस, कहा जाता है। आयुर्वेद में भी इन असंख्य जीवाणुओं का उल्लेख है।

जीवाणुनाशक द्रव्य

वेदों में जीवाणुओं को मारने हेतु 15 द्रव्य लिखे गये हैं। ये हैं-सूर्य, अग्नि, विद्युत, मेघ, जल, वायु, सीसा, अंजन, सर्षप, अपामार्ग, प्रश्नपर्णी, पीला, अक्षगंधी, नलदी और प्रमन्दनी। ये पदार्थ पृथक्-पृथक् रूप से कृमियों अर्थात् जीवाणुओं का नाश करते हैं। उदाहरणार्थ- अपामार्ग होमी भवति राक्षसामपहत्ये, अर्थात अपामार्ग का जो होम  (हवन) होता है वह राक्षसों' (जीवाणुओं) के नाश के लिए होता है। इसी प्रकार सर्षप (सरसों) के जीवाणुनाशक गुण के बारे में कहा गया है-

ये शाला: परिनृत्यन्ति सायं गर्दभनादिन:।
कुसूला ये च कुक्षिला: कुकुमा कुरूमा स्त्रिमाः।।
तानोषधे त्वं गंधेन विषूचीनान विनायश।।    अथर्व–८/९/१0

अर्थात् जो राक्षस सायंकाल गधों की ध्वनि की तरह पाकशाला तथा घर के चारों ओर नाचते रहते है और जो कुसूल, कुक्षिल, कुकुम, कुरूम तथा स्त्रिम आकारों वाले हैं उन सुई के समान व्यथाकारियों को हे सर्षप तू अपनी गन्ध से नष्ट कर।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book