लोगों की राय

ई-पुस्तकें >> चमत्कारिक दिव्य संदेश

चमत्कारिक दिव्य संदेश

उमेश पाण्डे

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :169
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9682
आईएसबीएन :9781613014530

Like this Hindi book 4 पाठकों को प्रिय

139 पाठक हैं

सम्पूर्ण विश्व में भारतवर्ष ही एक मात्र ऐसा देश है जो न केवल आधुनिकता और वैज्ञानिकता की दौड़ में शामिल है बल्कि अपने पूर्व संस्कारों को और अपने पूर्वजों की दी हुई शिक्षा को भी साथ लिये हुए है।

प्राचीन ग्रन्थों में जीवाणुवाद

विभिन्न प्राचीन वेदादि ग्रन्थों के अध्ययन से यह स्पष्ट हो जाता है कि हमारे पूर्वजों को आज के विज्ञान से कहीं अधिक ज्ञान था। जिन जीवाणु-विषाणुओं को आज हम समझ सके हैं और इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोप की सहायता से देख पाते हैं, उन्हीं जीवाणुओं का विस्तृत वर्णन पहले से ही हमारे प्राचीन ग्रन्थों में है। यह बात सही है कि हमारे ऋषि-मुनियों के पास आधुनिक वैज्ञानिक सूक्ष्म यंत्रादि नहीं थे फिर भी यह सत्य है कि उन्हें इन यन्त्रों की आवश्यकता ही कभी प्रतीत नहीं हुई, क्योंकि उनके पास आध्यात्मिक सूक्ष्मदृष्टि थी, सम्पूर्णतावाला आध्यात्मिक विज्ञान था।

अध्यात्मद्रष्टा प्राचीन ऋषि-मुनियों को इन अतिसूक्ष्म जीवों की केवल उत्पत्ति सम्बन्धी ज्ञान ही नहीं, अपितु, उनकी उत्पादक शारीरिक प्रवृत्ति या स्वभाव आदि तथा उनके उत्पादक मूल कारण, मूल दोष एवं आहार का भी ठोस ज्ञान था।

आयुर्वेद में जीवाणु

संसार के सबसे प्राचीन ग्रन्थ तथा भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता के आदिस्रोत वेद हैं। चारों वेदों में विशेष रूप से अथर्ववेद में, जिसका उपवेद आयुर्वेद है। अनेक स्थानों में प्रवेश करने की प्रक्रिया, उनसे होने वाली व्याधियाँ तथा उन व्याधियों अर्थात् जीवाणुओं को नष्ट करने के उपाय भी वर्णित हैं।

आयुर्वेद का एक हिस्सा सुश्रुत है। इसके अनुसार--देव, असुर, गंधर्व, यक्ष, राक्षस, पितृ, पिशाच और नाग आदि ग्रहों का शमन करना भूत विद्या है। उपरोक्त वर्णित सभी नाम रोगोत्पादक जीवाणुओं के हैं।

यजुर्वेद में जीवाणुओं को 'रुद्र' की संज्ञा दी गई है। रोदयन्नीति रुद्राः' के अनुसार रुलाने वाले को अर्थात् पीड़ा पहुँचाने वाले को रुद्र' कहते हैं जिसका आशय जीवाणुओं से ही है।

यजुर्वेद के 16 वें अध्याय में वर्णित है, कि नीली गर्दन वाले, सफेद गर्दन वाले रोम तथा बिना रोम वाले, कुछ लाल, कुछ अरुण वर्ण वाले तथा कुछ भूरे वर्ण वाले जीवाणु रुद्र हैं। पृथ्वी, समुद्र और आकाश इनके स्थान हैं। कुछ वृक्षों पर भी रहते हैं, जिनमें से कुछ का वर्ण हरा है ओर कुछ का वर्ण लाल तथा गर्दन नीली होती है। कुछ ऐसे भी हैं जो रास्ते में भ्रमण करते हुए मिलते हैं। ऐसे रुद्रों (जीवाणुओं) की संख्या एक, दो नहीं, वरन् सहस्रों और असंख्य है। इसी प्रकार अथर्ववेद में वर्णित है कि जीवाणु असंख्य व सहस्रों प्रकार के होते हैं। जो वायुमण्डल में विचरण करते रहते हैं तथा जब हमें अपवित्र तथा हमारे अंगों को गतिहीन और निष्क्रिय पाते हैं, तब वे हम पर आक्रमण कर देते हैं। प्राचीन काल में वायुमण्डल को हवन द्वारा जीवाणु विहीन करने की प्रथा सर्वविदित है।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book

A PHP Error was encountered

Severity: Notice

Message: Undefined index: mxx

Filename: partials/footer.php

Line Number: 7

hellothai