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धर्म एवं दर्शन >> आत्मतत्त्व

आत्मतत्त्व

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :109
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9677
आईएसबीएन :9781613013113

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आत्मतत्त्व अर्थात् हमारा अपना मूलभूत तत्त्व। स्वामी जी के सरल शब्दों में आत्मतत्त्व की व्याख्या


अब प्रश्न यह है कि यदि आत्मा अनन्त और सर्वत्र अस्तित्ववान है, जैसा कि निराकार चेतन वस्तु होने के कारण उसे होना ही चाहिए, तो उसके द्वारा विविध देहों को धारण करने तथा एक के बाद दूसरी देह में होकर गुजरते रहने का अर्थ क्या है? भाव यह है कि आत्मा न जाती है, न आती है, न जन्मती है, न मरती है। जो सर्वव्यापी है, उसका जन्म कैसे हो सकता है? आत्मा शरीर में रहती है, यह कहना निरर्थक प्रलाप है। असीम एक सीमित देश में किस प्रकार निवास कर सकता है? किन्तु जैसे मनुष्य अपने हाथ में पुस्तक लेकर एक पृष्ठ पढ़कर उसे उलट देता है, दूसरे पृष्ठ पर जाता है, पढ़कर उसे उलट देता है, आदि; किन्तु ऐसा होने में पुस्तक उलटी जा रही है, पन्ने उलट रहे हैं, मनुष्य नहीं - वह सदा वहीं विद्यमान रहता है, जहाँ वह है - और ऐसा ही आत्मा के सम्बन्ध में सत्य है।

सम्पूर्ण प्रकृति ही वह पुस्तक है, जिसे आत्मा पढ़ रही है। प्रत्येक जन्म उस पुस्तक का एक पृष्ठ जैसा है; पढ़ा जा चुकने पर वह पलट दिया जाता है, और यही क्रम सम्पूर्ण पुस्तक के समाप्त होने तक चलता रहता है, और आत्मा प्रकृति का सम्पूर्ण भोग प्राप्त करके पूर्ण हो जाती है। फिर भी न वह कभी चलती है, न कहीं जाती, न आती है; वह केवल अनुभवों का संचय करती रहती है। किन्तु हमें ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे हम गतिशील रहे हों। पृथ्वी गतिशील है, तथापि हम सोचते हैं कि पृथ्वी के बजाय सूर्य चल रहा है, और हम जानते हैं कि यह भूल है, ज्ञानेन्द्रियों का एक भ्रम है। इसी प्रकार का भ्रम यह है कि हम जन्म लेते हैं और मरते हैं, हम आते हैं, जाते हैं। न हम आते हैं, न जाते हैं, और न हम जन्मे ही हैं। क्योंकि आत्मा को जाना कहाँ है? उसके जाने के लिए कोई स्थान ही नहीं है। कहाँ है वह स्थान, जहाँ वह पहले से ही विद्यमान नहीं है?

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