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धर्म एवं दर्शन >> आत्मतत्त्व

आत्मतत्त्व

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :109
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9677
आईएसबीएन :9781613013113

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आत्मतत्त्व अर्थात् हमारा अपना मूलभूत तत्त्व। स्वामी जी के सरल शब्दों में आत्मतत्त्व की व्याख्या


इन सभी विभिन्न मतों से सांख्य दर्शन का प्रादुर्भाव हुआ, जिसमें हमें तत्काल ही विशाल विभेद मिलते हैं। उसकी धारणा यह है कि मनुष्य के पास पहले तो यह स्थूल शरीर है; स्थूल शरीर के पीछे सूक्ष्म शरीर है, जो मन का यान जैसा है; और उसके भी पीछे - जैसा कि सांख्यवादी उसे कहते हैं - मन का साक्षी आत्मा या पुरुष है; और यह सर्वव्यापक है। अर्थात्, तुम्हारी आत्मा, मेरी आत्मा, प्रत्येक व्यक्ति की आत्मा, एक ही समय में सर्वत्र विद्यमान है। यदि वह निराकार है, तो कैसे माना जा सकता है कि वह देश में व्याप्त है? देश को व्याप्त करनेवाली हर वस्तु का आकार होता है। निराकार केवल अनन्त ही हो सकता है। अत: प्रत्येक आत्मा सर्वत्र है। जो एक अन्य सिद्धान्त प्रस्तुत किया गया, वह और भी अधिक आश्चर्यजनक है।

प्राचीन काल में यह सभी अनुभव करते थे कि मानव प्राणी उन्नतिशील हैं, कम से कम उनमें बहुतसे तो हैं ही। पवित्रता, शक्ति और ज्ञान में वे बढ़ते ही जाते हैं; और तब यह प्रश्न किया गया : मनुष्यों द्वारा अभिव्यक्त यह ज्ञान, यह पवित्रता, यह शक्ति कहाँ से आयी है? उदाहरणार्थ, यहाँ किसी भी ज्ञान से रहित एक शिशु है। वही शिशु बढ़ता है और एक बलिष्ठ, शक्तिशाली और ज्ञानी मनुष्य हो जाता है। उस शिशु को ज्ञान और शक्ति की अपनी यह सम्पदा कहाँ से प्राप्त हुई? उत्तर मिला कि वह आत्मा में है; शिशु की आत्मा में यह ज्ञान और शक्ति आरम्भ से ही थी। यह शक्ति, यह पवित्रता और यह बल उस आत्मा में थे, किन्तु वे थे अव्यक्त, अब वे व्यक्त हो उठे हैं। इस व्यक्त या अव्यक्त होने का अर्थ क्या है? जैसा कि सांख्य में कहा जाता है, प्रत्येक आत्मा शुद्ध और पूर्ण, शक्तिमान और सर्वज्ञ है; किन्तु बाह्यतया वह स्वयं को केवल अपने मन के अनुरूप ही व्यक्त कर सकती है। मन आत्मा का प्रतिबिम्बक दर्पण जैसा है, मेरा मन एक निश्चित सीमा तक मेरी आत्मा की शक्तियों को प्रतिबिम्बित करता है; इसी प्रकार तुम्हारा मन और हर किसी का मन अपनी शक्तियों को करता है। जो दर्पण अधिक निर्मल होता है, वह आत्मा को अधिक अच्छी तरह प्रतिबिम्बित करता है। अत: आत्मा की अभिव्यक्ति मन के अनुरूप विविधतामय होती है; किन्तु आत्माएँ स्वरूपत: शुद्ध और पूर्ण होती हैं।

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