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आत्मतत्त्व
आत्मतत्त्व
प्रकाशक :
भारतीय साहित्य संग्रह |
प्रकाशित वर्ष : 2016 |
पृष्ठ :109
मुखपृष्ठ :
ईपुस्तक
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पुस्तक क्रमांक : 9677
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आईएसबीएन :9781613013113 |
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आत्मतत्त्व अर्थात् हमारा अपना मूलभूत तत्त्व। स्वामी जी के सरल शब्दों में आत्मतत्त्व की व्याख्या
बच्चा जब संसार में आता है, तो उसे दाँत नहीं रहते और वह घुटने के बल चलता है; जब वृद्ध होकर आदमी संसार से विदा लेने लगता है, तब भी उसके दाँत नहीं रहते और उसे भी घुटने के बल चलना पड़ता है। दोनों ही सिरे एक-से है। पर एक ओर जहाँ जीवन का कोई अनुभव नहीं रहता, वहाँ दूसरी असे व्यक्ति जीवन के सारे अनुभवों को देख चुका होता है। इसी तरह जब ईथर की तरंगों के कम्पन धीमे रहते हैं, तो हम, प्रकाश नहीं देखते, अन्धकार रहता है। पर जब ये कम्पन अत्यन्त तेज हो जाते हैं, तब भी अन्धकार हो जाता है। इससे तो यही सिद्ध होता है कि दो अतियों या सिरों की स्थिति समान होती है, पर उनमें आकाश-पाताल का अन्तर रहता है। दीवाल की कोई वासना नहीं होती और पूर्ण व्यक्ति की भी कोई वासना नहीं रहती। पर दीवाल को किसी चीज की कामना के लिए चेतना ही नहीं है, जब कि पूर्ण व्यक्ति को किसी चीज की कामना ही शेष नहीं रह जाती। ऐसे भी मूर्ख मिलेंगे ही, जो अपनी अज्ञता के कारण किसी तरह की आकांक्षा नहीं रखते, साथ ही पूर्णत्व की स्थिति में भी कोई आकांक्षा नहीं रह जाती। पर जीवन की इन दोनों स्थितियों में आकाश-पाताल का अन्तर है; एक जहाँ पशुत्व के समीप है, वहाँ दूसरी ब्रह्मत्व के।
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