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धर्म एवं दर्शन >> आत्मतत्त्व

आत्मतत्त्व

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :109
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9677
आईएसबीएन :9781613013113

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आत्मतत्त्व अर्थात् हमारा अपना मूलभूत तत्त्व। स्वामी जी के सरल शब्दों में आत्मतत्त्व की व्याख्या


हम ऐसा कह सकते हैं कि कीट से लेकर मनुष्य तक जितने स्वरूप दीख पड़ते हैं, सभी 'शिकागो हिंडोले' के डिब्बों की तरह हैं। वह हिंडोला हमेशा घूमता रहता है, पर उसके डिब्बों में बैठनेवाले बदलते रहते हैं। कोई मनुष्य किसी डिब्बे में घुसता है, हिंडोले के साथ घूमता है और फिर बाहर निकल आता है। किन्तु हिंडोला घूमता ही रहता है। इसी प्रकार कोई जीव किसी शरीर में प्रवेश करता है, उसमें कुछ समय के लिए निवास करता है, फिर उसे छोड़कर दूसरे शरीर को धारण करता है और उसे भी छोड़कर फिर अन्य शरीर में प्रवेश कर जाता है। यह चक्र तब तक चलता रहता है, जब तक जीव इस चक्र से बाहर आकर मुक्त नहीं हो जाता।

हर देश में हर समय अगर कोई व्यक्ति भूत-भविष्य की बात बतलाता है, तो उसे विस्मय की दृष्टि से देखा जाता है। किन्तु इसकी व्याख्या यह है कि जब तक आत्मा कार्य-कारणवाद की परिधि में रहती है - यद्यपि उसकी अन्तर्निहित स्वतन्त्रता तब भी बनी रहती है, जिसकी वजह से कुछ लोग आवागमन के चक्र से निकलकर मुक्त हो जाते हैं - तब तक इसके क्रिया-कलापों पर कार्य-कारण-नियम का बड़ा प्रभाव रहता है, जिसके चलते अन्तर्दृष्टि रखनेवाले महात्मा भूत और भविष्य की बातें बता देते हैं।

जब तक मनुष्य में वासना बनी रहेगी, तब तक उसकी अपूर्णता स्वत: प्रमाणित होती रहेगी। एक पूर्ण एवं मुक्त प्राणी कभी किसी चीज की आकांक्षा नहीं करता। ईश्वर कुछ चाहता नहीं है। अगर उसके भीतर भी इच्छाएँ जगें, तो वह ईश्वर नहीं रह जायगा; वह अपूर्ण हो जायगा। इसलिए यह कहना कि ईश्वर यह चाहता है, वह चाहता है, वह क्रमश: कुद्ध एवं प्रसन्न होता है - महज वच्चों का तर्क है, जिसका कोई अर्थ नहीं। इसलिए सभी उपदेशकों ने कहा है, ''वासना को छोड़ो, कभी कोई आकांक्षा न रखो और पूर्णत: सन्तुष्ट रहो।''

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