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धर्म एवं दर्शन >> आत्मतत्त्व

आत्मतत्त्व

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :109
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9677
आईएसबीएन :9781613013113

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आत्मतत्त्व अर्थात् हमारा अपना मूलभूत तत्त्व। स्वामी जी के सरल शब्दों में आत्मतत्त्व की व्याख्या


ईश्वर के सम्बन्ध में भारतीय दर्शन ने जो तीन कदम उठाये, उनकी ये ही प्रमुख विशेषताएँ हैं। हमने देखा कि इसका प्रारम्भ ऐसे ईश्वर की कल्पना से हुआ, जो सगुण व्यक्ति है तथा विश्व से परे है। यह दर्शन बृहद् ब्रह्माण्ड से सूक्ष्म ब्रह्माण्ड - ईश्वर - तक आया, जिसे विश्व में अन्तर्व्याप्त माना गया। और, अन्त में आत्मा ही को परमात्मा मानकर सम्पूर्ण विश्व में एक सत्ता की अभिव्यक्ति को स्वीकार किया गया। वेदों की यही चरम शिक्षा है। इस तरह यह दर्शन द्वैतवाद से प्रारम्भ होकर विशिष्टाद्वैत से होता हुआ शुद्ध अद्वैतवाद में विकसित होता है। हम लोग जानते हैं कि संसार में बहुत कम लोग ही इस अन्तिम अवस्था तक आ सकते हैं या यहाँ तक कि इसमें विश्वास करने का साहस रख सकते हैं, और इसे व्यवहार में लानेवाले तो उनसे भी विरल हैं। फिर भी इतना तो स्पष्ट है कि सम्पूर्ण नीतिशास्त्र और आध्यात्मिकता का रहस्य यही है। क्यों सब लोग कहते हैं - ''दूसरे की भलाई करो''? इसका कारण कहाँ है? क्यों सभी महान व्यक्ति मानव-जाति में विश्व-बन्धुत्व की शिक्षा देते हैं और महत्तर व्यक्ति समस्त प्राणियों में? कारण यह है कि चाहे वे जाने या न जानें, पर उनकी हर धारणा, उनके हर तर्कहीन एवं वैयक्तिक अन्धविश्वास के मूल में निहित एक आत्मा का शाश्वत प्रकाश बार-बार अपनी अनन्त व्यापकता को प्रकट करता है, अनेक रूपों में विद्यमान अपनी एक सत्ता का प्रतिपादन करता है।

फिर भारतीय दर्शन अपनी चरमावस्था पर पहुँचकर विश्व की यों व्याख्या करता है : विश्व एक ही है, पर इन्द्रियों को यह भौतिक लगता है, बुद्धि को आत्माओं का संग्रह दिखता है और आध्यात्मिक दृष्टि से ईश्वर के रूप में प्रकट होता है। उस व्यक्ति को, जो अपने ऊपर पापों का परदा डाले रहता है, यह गर्हित लगेगा; किन्तु जो सतत आनन्द की खोज में है, उसे यह स्वर्ग-सा लगेगा और जो आध्यात्मिक रूप से पूर्णत: विकसित है, उसके लिए यह सब अन्तर्हित हो जायगा, उसे केवल अपनी ही आत्मा का विस्तार प्रतीत होगा।

अभी वर्तमान समय में समाज की जैसी स्थिति है, उसमें दर्शन की इन तीनों अवस्थाओं की नितान्त आवश्यकता है; ये अवस्थाएँ परस्पर-विरोधी नहीं, बल्कि एक दूसरे की पूरक हैं। अद्वैतवादी अथवा विशिष्टाद्वैतवादी यह नहीं कहते कि द्वैतवाद गलत है। वे कहते हैं कि द्वैतवाद भी ठीक ही है, पर कुछ निम्न स्तर का। यह भी सत्य ही की ओर ले जाता है; इसलिए हर व्यक्ति को अपना-अपना जीवनदर्शन अपने विचारों के अनुसार निश्चित करने की स्वतन्त्रता है। तुम किसी को आघात मत पहुँचाओ, किसी की स्थिति को अस्वीकार मत करो; जिस स्थिति में वह है, स्वीकार करो और यदि तुम कर सकते हो, तो उसे अपने हाथों का सहारा दो और उसे एक उच्चतर स्तर पर ले जाओ, पर उसे हानि न पहुँचाओ और उसे विनष्ट मत करो। अन्त में तो सब को सत्य को पाना ही है। 'जब सारी वासनाओं का अन्त हो जायगा, तब यह नश्वर मानव ही अमर बनेगा' - तब यह मानव ही ईश्वर बन जायगा।

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