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धर्म एवं दर्शन >> आत्मतत्त्व

आत्मतत्त्व

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :109
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9677
आईएसबीएन :9781613013113

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आत्मतत्त्व अर्थात् हमारा अपना मूलभूत तत्त्व। स्वामी जी के सरल शब्दों में आत्मतत्त्व की व्याख्या


तथापि, किस प्रकार वह पूर्ण ब्रह्म भ्रमित हुआ है? वह भ्रमित नहीं हुआ। किस प्रकार पूर्ण ब्रह्म स्वप्न देख सकता है? उसने कभी स्वप्न नहीं देखा। सत्य कभी स्वप्न नहीं देखता। यह प्रश्न ही कि आत्मा को भ्रम कैसे हुआ, बेतुका है। भ्रम से भ्रम की उत्पत्ति होती है। पर जैसे ही सत्य का दर्शन होता है, भ्रम दूर हो जाता है। भ्रम सदा भ्रम पर आधारित रहता है; सत्य, ईश्वर तथा आत्मा कभी उसके आधार नहीं हो सकते। तुम कदापि भ्रम में नहीं हो; वही भ्रम है, जो तुममें, तुम्हारे सम्मुख है। एक बादल है; दूसरा आता है और उसे हटा देता है और उसका स्थान ले लेता है। फिर दूसरा आता है। और पहले को हटा देता है। जैसे अनन्त नीले आकाश में रंगारंग बादल आते हैं, क्षण भर ठहरते है, और अन्तर्हित हो जाते हैं। पर आकाश ज्यों का त्यों शाश्वत नील रूप से विद्यमान रहता है, वैसेही तुम भी शाश्वत पूर्णता और शुद्धता के साथ विद्यमान हो, यद्यपि भ्रम के बादल आते-जाते रहते हैं। तुम्हीं वास्तविक विश्व-देवता हो; बल्कि दो की भावना ही अयथार्थ है - एक ही तो सत्ता है। 'तुम और मैं' कहना ही गलत है, केवल 'मैं' कहो। मैं ही तो करोड़ों मुँह से खा रहा हूँ फिर मैं भूखा कैसे रह सकता हूँ? मैं ही तो करोड़ों करों से काम कर रहा हूँ; फिर मैं निष्क्रिय कैसे हो सकता हूँ? मैं ही समस्त विश्व का जीवन जी रहा हूँ मेरे लिए मृत्यु कहाँ है? मैं जीवन और मृत्यु के परे हूँ। मुक्ति की खोज कहाँ करूँ? मैं तो स्वभाव से ही मुक्त हूँ। मुझे - इस विश्व के ईश्वर को बाँध कौन सकता है? संसार के धर्मग्रन्थ मानो छोटे-छोटे नक्शे हैं, जो मेरी महिमा को, मुझ अनन्त विस्तारी सत्ता को चित्रित करने का प्रयास करते हैं। ये पुस्तकें मेरे लिए क्या हैं? इस प्रकार अद्वैतवादी कहते हैं।

'सत्य को जान लो और क्षण भर में तुम मुक्त हो जाओ।' सारा अज्ञान भाग जायगा। जब एक बार मनुष्य विश्व की अनन्त सत्ता से अपने को एकीभूत कर लेता है, जब विश्व की सारी पृथकता विनष्ट हो जाती है, जब सारे देवता और देवदूत, नर-नारी, पशु और पौधे उस एकत्व, में विलीन हो जाते हैं - तब कोई भय नहीं रह जाता। क्या मैं अपने आपको चोट पहुँचा सकता हूँ? अपने को मार सकता हूँ? क्या मैं अपने को आघात पहुँचा सकता हूँ? डरना किससे? अपने आपसे डर कैसा? जब ऐसा भाव आ जायगा, तब समस्त दुःखों का अन्त हो जायगा। मेरे दुःख का कारण क्या हो सकता है? मैं ही तो समस्त विश्व की एकमात्र सत्ता हूँ। तब किसी से ईर्ष्या नहीं रह जायगी; क्योंकि ईर्ष्या किससे? स्वयं से? तब समस्त अशुभ भावनाएँ समाप्त हो जायँगी। किसके विपक्ष में मैं अशुभ भावना रख सकता हूँ? स्वयं के विरुद्ध? विश्व में मेरे सिवा और है कौन? और वेदान्ती कहता है कि ज्ञान-प्राप्ति का यही एकमात्र मार्ग है। विभेद के भाव को विनष्ट कर डालो, यह अन्धविश्वास कि विविधता का अस्तित्व है, समाप्त कर डालो।  

''जो अनेकता में एकता का दर्शन करता है, जो इस अचेतन जड़ पिण्ड में एक ही चेतना का अनुभव करता है, एवं जो छायाओं के जगत् में 'सत्य को ग्रहण कर पाता है, केवल उसी मनुष्य को शाश्वत शान्ति मिल सकती है, और किसी को नहीं, और किसी को नही''।

- कठोपनिषद् – 2/2/13

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