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धर्म एवं दर्शन >> आत्मतत्त्व

आत्मतत्त्व

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :109
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9677
आईएसबीएन :9781613013113

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आत्मतत्त्व अर्थात् हमारा अपना मूलभूत तत्त्व। स्वामी जी के सरल शब्दों में आत्मतत्त्व की व्याख्या


वेदान्ती लोग उस सत्ता में लिंग-भेद नहीं मानते - लिंग तो मानव-मस्तिष्क से उत्पन्न एक भ्रम है - आत्मा का कोई लिंग नहीं। जो लोग भ्रम में हैं, जो पशु के सदृश हो गये हैं, वे पुरुष या स्त्री को देखते हैं; किन्तु जो जीता-जागता देवता है, वह नर या नारी में अन्तर नहीं जानता। जो सारी चीजों से ऊपर उठ चुका है, उसके लिए लिंग-सम्बन्धी झमेला क्या? हर व्यक्ति, हर वस्तु शुद्ध आत्मा है, जो पवित्र है, लिंगहीन है तथा शाश्वत शिव है। नाम, रूप और शरीर, जो भौतिक हैं, सारी भिन्नताओं के मूल हैं। अगर तुम नाम और रूप के अन्तर को हटा दो, तो सारा विश्व एक है; दो की सत्ता नहीं है, बल्कि सर्वत्र एक ही है। सर्वत्र एक है। तुम और मैं एक हैं। न तो प्रकृति है, न ईश्वर और न विश्व; बस, एक ही अपरिमेय सत्ता है, जिससे नाम और रूप के आधार पर ये तीनों बने हैं।

ज्ञाता स्वयं को कैसे जान सकता है? वह नहीं जान सकता। तुम अपने आपको कैसे देख सकते हो? तुम अपने को प्रतिबिम्बित भर कर सकते हो। इस तरह यह सारा विश्व एक शाश्वत सत्ता, आत्मा की प्रतिच्छाया मात्र है। और चूंकि प्रतिच्छाया अच्छे या बुरे प्रतिक्षेपक पर पड़ती है, इसलिए तदनुरूप अच्छे या बुरे बिम्ब बनते हैं। अगर कोई व्यक्ति हत्यारा है, तो उसमें प्रतिक्षेपक बुरा है न कि आत्मा। दूसरी ओर अगर कोई साधु है, तो उसमें प्रतिक्षेपक शुद्ध है। आत्मा तो स्वरूपत: शुद्ध है। एक वही सत्ता है, जो कीट से लेकर पूर्णतया विकसित प्राणी तक में प्रतिबिम्बित है। इस तरह यह सम्पूर्ण विश्व एक है; भौतिक, मानसिक, नैतिक, आध्यात्मिक - हर दृष्टि से इस एक सत्ता को ही हम विभिन्न रूपों में देखते हैं, अपने मन से अनेक बिम्ब इस पर अध्यस्त करते हैं।

जिस प्राणी ने अपने को मनुष्यत्व तक ही सीमित रख लिया है, उसे ऐसा लगता है कि यह संसार मनुष्यों का है। किन्तु जो चेतना के उच्चतर स्तर पर है, उसे यह संसार स्वर्ग-सा दीखता है। वस्तुत: एक ही सत्ता या आत्मा अखिल ब्रह्माण्ड में व्याप्त है। इसका न तो आना होता है, न जाना। न यह पैदा होती है, न मरती है और न पुन: अवतरित होती है। आखिर यह मर भी कैसे सकती है? यह जाय, तो कहाँ जाय? संसार और स्वर्ग आदि सारे स्थानों की व्यर्थ कल्पना तो हमने कर रखी है। न तो वे कभी रहे हैं, न अभी हैं और न भविष्य में कभी होंगे। मैं सर्वव्यापी हूँ शाश्वत हूँ तो फिर मैं जा कहाँ सकता हूँ? मैं कहाँ नहीं हूँ, जहाँ जाऊँ? मैं तो प्रकृतिरूपी पुस्तक को पढ़ रहा हूँ। पृष्ठ पर पृष्ठ उलटता जा रहा हूँ और जीवन का एक-एक स्वप्न समाप्त होता जा रहा है। एक पन्ना पढ़ता हूँ तो एक स्वप्न समाप्त होता है; और इसी तरह यह क्रम जारी है। जब सारी पुस्तक पढ़ डालूँगा, तो उसे लेकर एक किनारे रख दूँगा; यही मेरे खेल का अन्त होगा।

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