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धर्म एवं दर्शन >> आत्मतत्त्व

आत्मतत्त्व

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :109
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9677
आईएसबीएन :9781613013113

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आत्मतत्त्व अर्थात् हमारा अपना मूलभूत तत्त्व। स्वामी जी के सरल शब्दों में आत्मतत्त्व की व्याख्या


आगे चलकर हम देखेंगे कि संसार के महत्तम चिन्तनशील व्यक्तियों को भी इसको समझने में कठिनाई होती रही है। हमने अपने को इतना दुर्बल बना लिया है, इतना नीचे गिरा लिया है। हम बातें चाहे जितनी बड़ी-बड़ी करें, पर सत्य तो यह है कि स्वभावत: हम किसी दूसरे का सहारा चाहते हैं। हमारी दशा उन कमजोर पौधों की है, जो किसी सहारे के बिना नहीं रह सकते।

ओह, कितनी बार लोगों ने मुझसे ''एक आरामदायक धर्म' की माँग की। बस, कुछ ही लोग हैं, जो सत्य की जिज्ञासा करते हैं, उससे भी कम लोग ऐसे मिलेंगे, जो सत्य को जानने का साहस करते हैं, और उससे भी कम ऐसे हैं, जो सत्य को जानकर हर प्रकार से उसको कार्यरूप में परिणत करते हैं। यह उनका दोष नहीं; बल्कि उनके मस्तिष्क का दोष है। हर नया विचार, खासकर उच्च कोटि का, लोगों को अस्तव्यस्त कर देता है, उनके मस्तिष्क में नया मार्ग बनाने लगता और उनके सन्तुलन को नष्ट कर देता है। साधारणत: लोग अपने इर्द-गिर्द के वातावरण में रमे रहते हैं, और इससे ऊपर उठने के लिए उन्हें प्राचीन अन्धविश्वासों, वंशानुगत अन्धविश्वासों, वर्ग, नगर, देश के अन्धविश्वासों तथा इन सब की पृष्ठभूमि में स्थित मानव-प्रकृति में सन्निहित अन्धविश्वासों की विशाल राशि पर विजय प्राप्त करनी होती है। फिर भी कुछ तो ऐसे वीर लोग संसार में हैं ही, जो सत्य को जानने का साहस करते हैं, जो उसे धारण करने तथा अन्त तक उसका पालन करने का साहस करते हैं।

तो अद्वैतवादी लोगों का क्या कहना है? उनका कहना है कि अगर कोई ईश्वर है, तो वह ईश्वर सृष्टि का निमित्त तथा उपादान कारण, दोनों है। इस तरह केवल वह स्रष्टा नहीं, अपितु सृष्टि भी है। वह स्वयं विश्व है। पर यह कैसे सम्भव है? शुद्ध, चेतनस्वरूप ईश्वर विश्व कैसे बन सकता है? यह इस तरह सम्भव है: जिसे अज्ञानी लोग विश्व कहते हैं, वस्तुत: उसका अस्तित्व है ही नहीं। तब तुम और मैं और ये सारी चीजें, जिन्हें हम देखते हैं, क्या हैं? ये तो मात्र आत्मसम्मोहन है; सत्ता तो केवल एक है। और वह अनादि, अनन्त और शाश्वत शिवस्वरूप है। उस सत्ता के अन्तर्गत ही हम ये सारे सपने देखते हैं। एक आत्मा है जो इन सारी चीजों से परे है, जो अपरिमेय है, जो ज्ञात से तथा ज्ञेय से परे है। हम उसी में तथा उसी के माध्यम से विश्व को देखते हैं। एकमात्र सत्य वही है। वही सत्ता यह मेज है, दर्शक है, दीवाल है, सब कुछ है; पर वह नाम और रूप नहीं है। मेज में से नाम और रूप को हटा दो; जो बचेगा, वही वह सत्ता है।

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