ई-पुस्तकें >> श्रीमद्भगवद गीता - भावप्रकाशिनी श्रीमद्भगवद गीता - भावप्रकाशिनीडॉ. लक्ष्मीकान्त पाण्डेय
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गीता काव्य रूप में।
संवाद कृष्ण-अर्जुन का यह, जब-जब स्मृति में आता है।
हे राजन, तब-तब मेरा तन, रह-रह पुलकित हो जाता है।।७६।।
पड़ जाता हूँ मैं विस्मय में, जब आता याद विराट रूप।
प्रभु का पावन दर्शन पाकर, मैं हूँ विभोर हे भरत भूप।।७७।।
योगेश्वर हैं श्रीकृष्ण जहां, धनुधारी श्री कुन्ती नन्दन।
श्री, विजय, विभूति, नीति, चारो हैं वहीं यही कहता है मन।।७८।।
कृष्ण और अर्जुन जहाँ, वहीं न्याय का वास।।
मोह मिटा चिन्ता हटी, दूर हुआ अज्ञान।
कर्म मार्ग पर बढ़ चले, प्रभु का कहना मान।।
नर-नारायण में हुआ, यह अद्भुत संवाद।
जो जन पढ़ता प्रेम से, मिटते सकल विषाद।।
देव देव वाणी कहें, सुनते थे नर देव।
प्रभु प्रसाद भाषा करी, सब जन सुलभ करेव।।
संस्कृत वाणी अति मधुर, सुधा, सरिस लो जान।
पर हरि चरननि प्रीति करि केहुँ विधि करु गुनगान।।
प्रभु नहिं मानत ज्ञान कछु, एक भगति पहचान।
अक्षर-अक्षर हरि बसो, यही मिले वरदान।।
तातें दोष विचारि बहु खल करिहैं परित्याग।
पढ़िहैं, सुनिहैं, समुझिहैं, जेहिं हरि पद अनुराग।।
वसु विधिमुख, नभ द्विज बरस, शिवमुख तिथि मधुमास।
सुरगुरु दिन सीस पक्ष महँ, पूरन भाव प्रकास।।
तव चरननि ते ऊपजी ताको पाय प्रसाद।
तासु तनय भाषा करी, यह अद्भुत संवाद।।
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