ई-पुस्तकें >> श्रीमद्भगवद गीता - भावप्रकाशिनी श्रीमद्भगवद गीता - भावप्रकाशिनीडॉ. लक्ष्मीकान्त पाण्डेय
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गीता काव्य रूप में।
अर्जुन बोले, प्रभु आप ब्रह्म, अतिशय पुनीत सर्वत्र व्याप्त।
देवाधिदेव, हे परमधाम, अज, विभु हो शाश्वत पुरुष ख्यात।।१२।।
नारद, मुनि देवल और व्यास ने प्रभुवर ऐसा बतलाया।
फिर माधव स्वयं आपने भी, मुझको ऐसा ही समझाया।।१३।।
में सत्य मानता हूँ यह सब, जो आप कह रहे हैं केशव।
लीलामय रूप आपका है, जो देव जानते ना दानव।।१४।।
देवाधिदेव, हे भूतेश्वर, हे पुरुषोत्तम प्रभु, परमेश्वर।
बस केवल आप जानते हैं, अपना स्वरूप, हे ज्ञानेश्वर।।१५।।
जिन-जिन विभूतियों से हे प्रभु, हैं जग में आप व्याप्त रहते।
विस्तारपूर्वक उन सबको, हैं केवल आप बता सकते।।१६।।
किस तरह आपको पहचानूँ, किस भाँति आपका ध्यान धरूँ।
किन-किन भावों से हे भगवन, मैं, चिन्तन करूँ, प्रणाम करूँ।।१७।।
मेरा मन तृप्त नहीं होता सुनकर यह वाणी सुधा भरी।
अपनी विभूतियों को फिर से, समझाकर मुझसे कहो हरी।।१८।।
माधव बोले, जो मुख्य-मुख्य, मैं बतलाता हूँ उन सबको।
अर्जुन विभूति का अन्त नहीं, उनका विस्तार अगम तुमको।।१९।।
हे गुडाकेश, सब जीवों में, अव्यक्त आत्मा मुझे जान।
मैं ही सबका हूँ आदि, मध्य, अवसान मुझे ही पार्थ मान।।२०।।
मैं सभी ज्योति में सूर्य और मैं विष्णु अदिति के पुत्रों में।
पवनों में मैं ही हूँ मरीचि, चन्द्रमा सभी नक्षत्रों में।।२१।।
वेदों में मैं हूँ सामवेद, मैं इन्द्रदेव हूँ देवों में।
मैं सभी इन्द्रियों में मन हूँ, चेतना रूप सब जीवों में।।२२।।
ग्यारह रुद्रों में शंकर हूँ, राक्षस-यक्षों में मैं कुबेर।
अष्टावसुओं में पावक हूँ, शिखरों में तुम जानो सुमेर।।२३।।
गुरुओं में सभी बृहस्पति हूँ, जानो तुम ऐसा कौन्तेय।
मैं सभी सरों में सागर हूँ, सेनापतियों में कार्तिकेय।।२४।।
वाणी में ओम एक अक्षर, ऋषिपों में भृगु ऋषि मुझे जान।
जड़ तत्वों मैं हिमवान समझ, यज्ञों में सब जप यज्ञ मान।।२५।।
सुर ऋषियों में में नारद हूँ, अश्वत्थ रूप सब वृक्षों में।
चित्ररथ समझ गन्धर्वों में, मैं कपिल देव हूँ सिद्धों में।।२६।।
गजराजों में हूँ ऐरावत, मैं उच्चश्रवा सब अश्वों में।
हे अर्जुन ऐसा जान मुझे, राजा हूँ सभी मनुष्यों में।।२७।।
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