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श्रीमद्भगवद गीता - भावप्रकाशिनी

डॉ. लक्ष्मीकान्त पाण्डेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :93
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9645
आईएसबीएन :9781613015896

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गीता काव्य रूप में।


जिन-जिन क्षेत्रों में जहाँ-जहाँ, सेना के नायक हों नियुक्त।
रक्षा हो भीष्म पितामह की, इस हेतु शक्ति करिए प्रयुक्त।।११।।
की सिंह-सदृश गर्जना तभी, सुन हर्षित दुर्योधन मन में।
तब किया घोर रव शंखनाद, कौरव कुल वृद्ध पितामह ने।।१२।।
यह सुनते मारू बाजों का, हो गया भयंकर-सा निनाद।
बज गए नगाड़े, ढोल और, नरसिंहे, गूँजे शंखनाद।।१३।।
थे अति विशाल रथ पर बैठे, जिनमें सफेद हय जुते हुए।
नर-नारायण के दिव्य शंख, ध्वनि सुनते गूँजे, मुखर हुए।।१४।।
तब पांचजन्य नारायण का, गूँजा अर्जुन का देवदत्त।
गुण और नाम से भीमसेन का पौण्ड्र शंख हो गया ध्वनित।।१५।।
जो शंख अनन्तविजय नामक, वह धर्मराज ने किया ध्वनित।
मणि पुष्पक और सुघोष शंख, सहदेव, नकुल से गुंजारित।।१६।।
फिर धनुधारी काशीश्वर के, राजा विराट के शंख बजे।
सात्यकी, शिखण्डी, धृष्टकेतु सेनापति-शंखध्वनि गूंजे।।१७।।
पांचालराज, द्रौपदी-सुवन थे जितने भी ये राजागण।
अभिमन्यु आदि बलवीरों के, शंखों का फिर प्रारम्भ ध्वनन।।१८।।
सुन पाण्डव दल का शंख नाद, कौरव दल में फैला विषाद।
धरती से नभ मण्डल तक में, रह-रह कर गूंजे यह निनाद।।१९।।
टकराने को जब शस्त्र उठे, तत्पर हो सब आएं लड़ने।
तब देख कौरवों को सम्मुख, ले धनुष हाथ में अर्जुन ने।।२०।।
नारायण से संयत स्वर में, गम्भीर वचन बोले भारत।
माधव दोनों सेनाओं के, ले चलो मध्य में मेरा रथ।। २१।।
प्रभु, देखूँगा मैं उन सबको, जो मुझसे लड़ने आए हैं।
संग्राम योग्य हैं कौन उचित, जिनको रण-उद्यम भाए हैं।।२२।।
दुर्बुद्धि सुयोधन के साथी, आए उसका हित करने को।
ये युद्ध हेतु आतुर योधा, देखूँ जो आए लड़ने को।।२३।।
संजय बोले-हे महाराज! माधव अर्जुन के कहने पर।
उत्तम रथ को ले गये मध्य, फिर दिया वहीं पर स्थित कर।।२४।।
थे ठीक सामने भीष्म, द्रोण, कुछ इधर-उधर सब राजागण।
लो देख पार्थ कुरुकुल को तुम, समवेत यहां, बोले मोहन।।२५।।
थे पिता पितामह सम्मुख ही स्थित, अर्जुन ने यह देखा।
लड़ने आए आचार्य और मामा, भाई, सुत, पौत्र सखा।।२६।।
हैं सुहृद श्वसुर सब सगे अरे, दोनों सेनाओं मध्य यहाँ।
जिस ओर दृष्टि जाती पाते, थे सभी उपस्थित बन्धु वहाँ।।२७।।
करुणाकुल मोहग्रस्त अर्जुन, कायरता आयी उनके मन।
बोले विषण्ण हो माधव से, जब युद्ध भूमि में मिले स्वजन।।२८।।
प्रभु दृश्य देख यह अंग शिथिल, मुख अरे सूखता जाता है।
रह-रह कर वदन प्रकम्पित हो, रोमांचित-सा हो आता है।।२९।।
गाण्डीव हाथ से फिसल रहा, सारा शरीर जलता जाता।
मन भ्रमित हो रहा बार-बार, मैं खड़ा भी नहीं हो पाता।।३०।।

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