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श्रीमद्भगवद गीता - भावप्रकाशिनी

डॉ. लक्ष्मीकान्त पाण्डेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :93
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9645
आईएसबीएन :9781613015896

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गीता काव्य रूप में।

विनय

शिशुता सदा स्वरूप में, लीला में श्रृंगार।
योगयुक्त आचार, जो निराकार-साकार।।१।।
ब्रज-बधुओं को प्रेममय, यशुदा बाल अनूप।
पार्थ-सखा, शिशुपाल-रिपु, भीष्म हेतु जगरूप।।२।।
पाण्डव कुल की लाज हो, कौरव-कुल के काल।
प्रेम पाय गोपी तरीं, कोप पाय शिशुपाल।।३।।
माखन चाखत माख न, जदपि सुनत कटु बैन।
दाख देखि त्यागो तुरत, प्रेम न पायो नैन।।४।।
धेनु रूप सब उपनिषद, पार्थ-वत्स, हरि-ग्वाल।
गीता-पय-अमृत-सरिस, ज्ञानी पिये निहाल।।५।।
अज, अनादि, अव्यक्त, अह, अप्रमेय, अनिकेत।
अव्यय अक्षर, अजर, अरु अमर अनघ तें हेतु।।६।।
राधा-धव, माधव, सुमिरु, पुनि चरनामृत पान।
गो, गंगा, गीता, तथा गायत्री सम जान।।७।।
हरि लखि हरषित गोपिका, हरी-भरी ह्वै जात।
हरे दुरित सब जगत के, हरि हरु हर उतपात।।८।।
वेद पढ़े या उपनिषद अथवा विविध पुरान।
शास्त्रादिक चर्चा वृथा, यदि ना गीता ज्ञान।।९।।
वाणी है श्रीकृष्ण की, विरचित मुनिबर व्यास।
प्रभु प्रेरित सज्जन कृपा प्रस्तुत भाव प्रकाश।।१०।।

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