ई-पुस्तकें >> यादें (काव्य-संग्रह) यादें (काव्य-संग्रह)नवलपाल प्रभाकर
|
7 पाठकों को प्रिय 31 पाठक हैं |
बचपन की यादें आती हैं चली जाती हैं पर इस कोरे दिल पर अमिट छाप छोड़ जाती हैं।
हवा और महबूबा
आँधी यूं तेज होकर ना चल
फूलों में लचक आ जायेगी ,
नाजुक है मेरी प्यारी महबूबा
कमरिया बल खा ही जायेगी।
आँधी का एक छोटा झोंका भी
छुता है जब उसके बदन को
आह निकल पड़ती है मुंह से
बहकाता है पागल मन को
इस धूल भरी हुई आँधी से
कहीं बहक ही वो जायेगी।
नाजुक है मेरी प्यारी महबूबा
कमरिया बल खा ही जायेगी।
शर्म कर कुछ तो तू ऐ हवा
यूं उसके आँचल को ना उड़ा
उड़ता है जब उसका आँचल
बहक जाता है मन पागल मेरा
तरसाती है मुझको जो तू हवा
क्या उसको भी ऐसे तरसायेगी।
नाजुक है मेरी प्यारी महबूबा
कमरिया बल खा ही जायेगी।
0 0 0
|