ई-पुस्तकें >> यादें (काव्य-संग्रह) यादें (काव्य-संग्रह)नवलपाल प्रभाकर
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बचपन की यादें आती हैं चली जाती हैं पर इस कोरे दिल पर अमिट छाप छोड़ जाती हैं।
सांझ और सवेरा
काली सांझ, उजला सवेरा
लेकर फिर से आ गई ,
आज की सुबह तो जैसे
मन को मेरे ही भा गई।
आज का यह सुहाना दिन
मानो दिन, दिन न होकर
अजीब तोहफा है मेरे लिए
अरसों बाद मिला यह दिन
न जाऐगा जाम पिए बिन
भुला था मगर याद आ गई।
आज की सुबह तो जैसे
मन को मेरे ही भा गई।
हर मंजिल हर डगर पर
घुमता फिरता था मैं अकेला
जैसे पागलों की तरह
था मेरा जीवन अलबेला
मगर मुझे यह सांझ तो
नया जीवन दिला गई।
आज की सुबह तो जैसे
मन को मेरे ही भा गई।
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