ई-पुस्तकें >> व्यक्तित्व का विकास व्यक्तित्व का विकासस्वामी विवेकानन्द
|
9 पाठकों को प्रिय 94 पाठक हैं |
मनुष्य के सर्वांगीण व्यक्तित्व विकास हेतु मार्ग निर्देशिका
समत्व भाव का विकास करो
किसी पर दया न करो। सबको अपने समान देखो। विषमता रूप आदिम पापों से स्वयं को मुक्त करो। हम सब समान हैं और हमें ऐसा नहीं सोचना चाहिये - ''मैं भला हूँ, तुम बुरे हो और मैं तुम्हारे पुनरुद्धार का प्रयत्न कर रहा हूँ।' साम्य भाव मुक्त पुरुष का लक्षण है।
केवल पापी ही पाप देखता है। मनुष्य को न देखो, केवल प्रभु को देखो। हम स्वयं अपना स्वर्ग बनाते हैं और नरक में भी स्वर्ग बना सकते हैं। पापी केवल नरक में ही मिलते हैं, और जब तक हम उन्हें अपने चारों ओर देखते हैं तब तक हम स्वयं भी नरक में होते हैं। आत्मा न तो काल में है और न स्थान में। अनुभव करो, मैं पूर्ण सत्, पूर्ण चित् और पूर्ण आनन्द हूँ - सोऽहमस्मि, सोऽहमस्मि।
मनुष्य को शिक्षा मिलनी ही चाहिये। आजकल जनतंत्र पर, मानव मात्र की समता पर चर्चा होती है। कोई व्यक्ति कैसे जान सकेगा कि वह सबके समान है। उसके पास एक सबल मस्तिष्क, निरर्थक विचारों से मुक्त निर्मल बुद्धि होनी चाहिये, उसे अपनी बुद्धि पर जमी अन्धविश्वासों की तहों को भेदकर उस विशुद्ध सत्य पर पहुँचना ही चाहिये, जो उसकी अन्तरतम में स्थित आत्मा है। तब उसे ज्ञात होगा कि सारी पूर्णता, सभी शक्तियाँ, स्वयं उसके भीतर पहले से ही मौजूद हैं, कोई दूसरा उसे प्रदान नहीं कर सकता। यह भलीभांति अनुभव कर लेने पर वह तत्काल मुक्त हो जाता है, समता को प्राप्त कर लेता है। वह भलीभाँति यह भी अनुभव कर लेता है कि हर दूसरा व्यक्ति भी उसी के समान पूर्ण है और उसे अपने बन्धु-मानवों पर किसी तरह के - दैहिक, बौद्धिक या नैतिक - बलप्रयोग की जरूरत नहीं। वह इस विचार को सदा के लिए भुला देता है कि कभी कोई व्यक्ति उससे निम्नतर भी था। केवल तभी वह समता की बात कर सकता है, उसके पूर्व नहीं।
|