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व्यक्तित्व का विकास

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :134
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9606
आईएसबीएन :9781613012628

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मनुष्य के सर्वांगीण व्यक्तित्व विकास हेतु मार्ग निर्देशिका


चरित्र क्या है ?
हमारी प्रत्येक क्रिया तथा विचार हमारे मन पर एक छाप छोड़ जाता है। ये संस्कार ही यह निर्धारित करते हैं कि हम एक विशेष क्षण में, किसी विशेष परिस्थिति में कैसा आचरण करेंगे। हमारे इन समस्त संस्कारों का योग हमारे चरित्र का निर्धारण करता है। भूतकाल ने वर्तमान का निर्धारण किया है। उसी प्रकार वर्तमान - हमारे वर्तमान विचार तथा क्रियाएँ - हमारा भविष्य निर्धारित करेंगी। यही व्यक्तित्व विकास को नियंत्रित करनेवाला मूलभूत सिद्धान्त है।

कौन देह-मन-तंत्र को क्रियाशील बनाता है?
यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है, जिसका उत्तर हमें अपने विषय में एक बेहतर ज्ञान देने में सहायक होगा। इसी प्रश्न ने प्राचीन भारत के ऋषि- मुनियों का भी ध्यान आकृष्ट किया था। उन्होंने अपने ऊपर ही प्रयोग किये अपनी इन्द्रियों तथा मानसिक यंत्रों पर - और विधिवत शोध से उन्हें पता चला कि मनुष्यों में एक ऐसा दैवी तत्व विद्यमान है, जो मन का भी मन है, आँखों की भी आँख है और वाणी की भी वाणी है।* (*केनोपनिपद् १.१-२) यही वह दिव्यता है, जो हमारा वास्तविक 'मैं' और हमारे व्यक्तित्व का शाश्वत तत्त्व है। शरीर का नाश होने पर भी इस दिव्य तत्व का नाश नहीं होता। जब तक हम अपने देह-मन तथा इन्द्रिय-तंत्र के साथ तादात्म का बोध करते रहते हैं, तब तक यह दिव्यता छिपी रहती है। शास्त्रों तथा महापुरुषों के मतानुसार इस छिपी हुई दिव्यता को व्यक्त करना ही जीवन का लक्ष्य है।

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