ई-पुस्तकें >> व्यक्तित्व का विकास व्यक्तित्व का विकासस्वामी विवेकानन्द
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मनुष्य के सर्वांगीण व्यक्तित्व विकास हेतु मार्ग निर्देशिका
मन के विषय में और भी
कठोपनिषद् एक रथ के दृष्टान्त द्वारा मानव-व्यक्तित्व का वर्णन करता है। हमारा 'मैं' रथ का स्वामी है, शरीर ही रथ है और बुद्धि सारथी है। मनस् लगाम है, जिससे कान, त्वचा, नेत्र, जिह्वा तथा घ्राणरूपी ज्ञानेन्द्रियाँ जुड़ी हुई हैं। ये ज्ञानेन्द्रियाँ व्यक्ति को संसार का ज्ञान देनेवाली मानो पाँच खिड़कियाँ है। भोग्य विषयों रूपी सड़क पर यह रथ चलता है। जो व्यक्ति इस देह-मन के साथ तादात्म का बोध करता है, उसे विषयों या कर्मफलों का भोक्ता कहा जाता है।
यदि घोड़े भलीभांति प्रशिक्षित नहीं है और यदि सारथी सोया हुआ है, तो रथ अपने लक्ष्य तक नहीं पहुँच सकता। बल्कि यह दुर्घटनाग्रस्त होकर अपने मालिक की मृत्यु का कारण भी बन सकता है। इसी प्रकार यदि इन्द्रियाँ नियंत्रण में नहीं लायी गयीं और यदि विवेक की शक्ति सोयी रह गयी, तो व्यक्ति मानव-जीवन के लक्ष्य तक नहीं पहुँच सकता।
दूसरी ओर, यदि घोड़े प्रशिक्षित हैं और सारथी सजग है, तो रथ अपने लक्ष्य तक पहुँच जाता है। उसी प्रकार यदि बुद्धि जाग्रत है और यदि मन तथा इन्द्रियाँ अनुशासित एवं संयमित हैं, तो व्यक्ति जीवन के लक्ष्य तक पहुँच सकता है। वह लक्ष्य क्या है? हम शीघ्र ही उस विषय पर आयेंगे। व्यक्तित्व-विकास से जुड़ी मन की एक अन्य महत्त्वपूर्ण क्रिया है हमारी भावनाएँ। ये भावनाएँ जितनी ही संयमित होंगी, व्यक्ति का व्यक्तित्व भी उतना ही स्वस्थ होगा। इन भावनाओं या मनोवेगों को मोटे तौर पर दो भागों मे बाँटा जा सकता है - राग और द्वेष। प्रेम, प्रशंसा, महत्त्वाकांक्षा, सहानुभूति, सुख, सम्मान, गर्व तथा इसी प्रकार के अन्य भावों को राग कहा जाता है। और घृणा, क्रोध, भय, खेद, ईर्ष्या, जुगुप्सा तथा लज्जा आदि द्वेष के अन्तर्गत आते हैं। जब तक व्यक्ति असंयमित मन के साथ जुड़ा है, तब तक उसके व्यक्तित्व का वास्तविक विकास नहीं होता। बुद्धिरूपी सारथी मनोवेगों को नियंत्रित करके और उच्चतर मन को निम्नतर मन के चंगुल से ऊपर उठाकर आत्म-विकास के एक प्रभावी यंत्र के रूप में कार्य करता है।
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