ई-पुस्तकें >> व्यक्तित्व का विकास व्यक्तित्व का विकासस्वामी विवेकानन्द
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मनुष्य के सर्वांगीण व्यक्तित्व विकास हेतु मार्ग निर्देशिका
शक्ति, शक्ति ही वह वस्तु है जिसकी हमें जीवन में इतनी जरूरत है। क्योंकि हम जिसे पाप या दुःख मान बैठे हैं, उसके मूल में हमारी दुर्बलता ही है। दुर्बलता अज्ञान का और अज्ञान दुःख का जनक है। यह उपासना ही हमें शक्ति देगी। फलत: दुःख हमारे लिये उपहासास्पद होगा, हिसकों की हिंसा की हम हँसी उड़ायेंगे और खूँखार चीता अपनी हिंसक प्रवृत्ति के भीतर मेरी अपनी आत्मा को ही अभिव्यक्त करने लगेगा।
हे मेरे युवा मित्रो, तुम बलवान बनो - तुम्हारे लिये मेरा यही उपदेश है। गीता-पाठ करने की अपेक्षा फुटबाल खेलने से तुम स्वर्ग के कहीं अधिक निकट होगे। मैंने बड़े साहसपूर्वक ये बातें कही हैं और इनको कहना अत्यावश्यक है। इसलिए कि मैं तुमको प्यार करता हूँ। मैं जानता हूँ कि कंकड कहाँ चुभता है। मैंने कुछ अनुभव प्राप्त किया है। बलवान शरीर तथा मजबूत पुट्ठों से तुम गीता को अधिक समझ सकोगे। शरीर में ताजा रक्त रहने से तुम कृष्ण की महती प्रतिभा और महान् तेजस्विता को अच्छी तरह समझ सकोगे। जिस समय तुम्हारा शरीर तुम्हारे पैरों के बल दृढ़ भाव से खड़ा होगा, जब तुम अपने को मनुष्य समझोगे, तब तुम उपनिषद् और आत्मा की महिमा भलीभांति समझोगे।
संसार के पाप-अत्याचार आदि की बातें मन में न लाओ, बल्कि रोओ कि तुम्हें जगत् में अब भी पाप दिखता है। रोओ कि तुम्हें अब भी सर्वत्र अत्याचार दिखायी पड़ता है। यदि तुम जगत् का भला करना चाहते हो, तो उस पर दोषारोपण करना छोड़ दो। उसे और भी दुर्बल मत करो। आखिर ये सब पाप दुःख आदि हैं क्या? ये सब दुर्बलता के ही फल हैं लोग बचपन से ही शिक्षा पाते हैं कि वे दुर्बल हैं, पापी हैं। ऐसी शिक्षा से संसार दिन-पर-दिन दुर्बल होता जा रहा है। उन्हें बताओ कि वे सब उसी अमृत की सन्तान हैं - और तो और, जिसमें आत्मा का प्रकाश अत्यन्त क्षीण है, उसे भी यही शिक्षा दो। बचपन से ही मस्तिष्क में ऐसे विचार प्रविष्ट हो जायँ, जिनसे उनकी सच्ची सहायता हो सके, जो उनको सबल बना दे, जिनसे उनका कुछ यथार्थ हित हो। दुर्बलता और अवसाद-कारक विचार उनके मन में प्रवेश ही न करें।
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