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व्यक्तित्व का विकास

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :134
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9606
आईएसबीएन :9781613012628

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मनुष्य के सर्वांगीण व्यक्तित्व विकास हेतु मार्ग निर्देशिका


पर्वत की गुफा में बैठकर भी यदि तुम कोई पाप-चिन्तन करो, किसी के प्रति घृणा का भाव पोषण करो, तो वह भी संचित रहेगा और कालान्तर में फिर से वह तुम्हारे पास कुछ दुःख के रूप में आकर तुम पर प्रबल आघात करेगा। यदि तुम अपने हृदय से बाहर चारों ओर ईर्ष्या और घृणा के भाव भेजो, तो वह चक्रवृद्धि ब्याज सहित तुम्हीं पर आकर गिरेगा। दुनिया की कोई भी ताकत उसे रोक नहीं सकेगी। यदि तुमने एक बार उसको बाहर भेज दिया, तो फिर निश्चित जानो, तुम्हें उसका प्रतिघात सहन करना ही पड़ेगा। यह स्मरण रहने पर तुम कुकर्मों से बचे रह सकोगे। नीतिशास्त्र कहते हैं, किसी के भी प्रति घृणा मत करो - सबसे प्रेम करो।

पूवोंक्त मत से नीतिशास्त्र के इस सत्य का स्पष्टीकरण हो जाता है। विद्युत-शक्ति के बारे में आधुनिक मत यह है कि वह डाइनेमो से बाहर निकलने के बाद, घूमकर फिर से उसी यन्त्र में लौट आती है। प्रेम और घृणा के बारे में भी यही नियम लागू होता है। अत. किसी से घृणा करना उचित नहीं, क्योंकि यह शक्ति - यह घृणा, जो तुममें से बहिर्गत होगी, घूमकर कालान्तर में फिर तुम्हारे ही पास वापस आ जायेगी। यदि तुम मनुष्यों से प्रेम करो, तो वह प्रेम घूम-फिरकर तुम्हारे पास ही लौट आयेगा। यह अत्यन्त निश्चित सत्य है कि मनुष्य के मन से घृणा का जो अंश बाहर निकलता है, वह अन्त में अपनी पूरी शक्ति के साथ उसी के पास लौट आता है। कोई भी इसकी गति रोक नहीं सकता। इसी प्रकार प्रेम का प्रत्येक संवेग भी उसी के पास लौट आता है।

ईर्ष्या का अभाव ही सबसे बड़ा रहस्य है। अपने भाइयों के विचारों को मान लेने के लिये सदैव प्रस्तुत रहो और उनसे हमेशा मेल बनाये रखने की कोशिश करो। यही सारा रहस्य है। बहादुरी से लड़ते रहो। जीवन क्षणस्थायी है। इसे एक महान उद्देश्य के लिये समर्पित कर दो।

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