ई-पुस्तकें >> व्यक्तित्व का विकास व्यक्तित्व का विकासस्वामी विवेकानन्द
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मनुष्य के सर्वांगीण व्यक्तित्व विकास हेतु मार्ग निर्देशिका
नकारात्मक भावनाओं को संयमित करो
हममें ये चार प्रकार के भाव रहने ही चाहिये। यह आवश्यक है कि
- हम सबके प्रति मैत्री-भाव रखें,
- दीन-दुखियों के प्रति दयावान हों,
- लोगों को सत्कर्म करते देख सुखी हों और
- दुष्टोंके प्रति उपेक्षा दिखायें।
इसी प्रकार, जो विषय हमारे सामने आते हैं, उन सबके प्रति भी हमारे ये ही भाव रहने चाहिये। यदि कोई विषय सुखकर हो, तो उसके प्रति मित्रता अर्थात् अनुकूल भाव धारण करना चाहिये। उसी प्रकार यदि हमारी भावना का विषय दुःखकर हो, तो उसके प्रति हमारा अन्तःकरण करुणापूर्ण हो। यदि वह कोई शुभ विषय हो, तो हमें आनन्दित होना चाहिये तथा अशुभ विषय होने पर उसके प्रति उदासीन रहना ही श्रेयस्कर है। इन सब विभिन्न विषयों के प्रति मन के इस प्रकार विभिन्न भाव धारण करने से मन शान्त हो जायेगा।
मन की इस प्रकार से विभिन्न भावों को धारण करने की असमर्थता ही हमारे दैनिक जीवन की अधिकांश गड़बड़ी व अशान्ति का कारण है। मान लो, किसी ने मेरे प्रति कोई अनुचित व्यवहार किया, तो मैं तुरन्त उसका प्रतिकार करने को उद्यत हो जाता हूँ। और इस प्रकार बदला लेने की भावना ही यह दिखाती है कि हम चित्त को संयमित रख पाने में असमर्थ हो रहे हैं। वह उस वस्तु की ओर तरंगाकार में प्रवाहित होता है और बस, हम अपने मन की शक्ति खो बैठते हैं। हमारे मन में घृणा या दूसरों का अनिष्ट करने की प्रवृत्ति के रूप में जो प्रतिक्रिया होती है, वह मन की शक्ति का अपव्यय मात्र है। दूसरी ओर, यदि किसी बुरे विचार या घृणाप्रसूत कार्य अथवा किसी प्रकार की प्रतिक्रिया की भावना का दमन किया जाय, तो उससे शुभंकरी शक्ति उत्पन्न होकर हमारे ही उपकार के लिये संचित रहती है। यह बात नहीं कि इस प्रकार के संयम से हमारी कोई क्षति होती है, वरन् उससे तो हमारा आशातीत उपकार ही होता है। जब कभी हम घृणा या क्रोध की वृत्ति को संयत करते हैं, तभी वह हमारे अनुकूल शुभ-शक्ति के रूप में संचित होकर उच्चतर शक्ति में परिणत हो जाती है।
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