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व्यक्तित्व का विकास

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :134
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9606
आईएसबीएन :9781613012628

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मनुष्य के सर्वांगीण व्यक्तित्व विकास हेतु मार्ग निर्देशिका

व्यक्तित्व का विकास

हम ऐसा मनुष्य देखना चाहते हैं जिसका विकास समन्वित रूप से हुआ हो - हृदय से विशाल, मन से उच्च और कर्म में महान्। हम ऐसा मनुष्य चाहते हैं, जिसका हृदय ससार के दुःख-दर्दों को गम्भीरता से अनुभव करे। और हम ऐसा मनुष्य (चाहते हैं) जो न केवल अनुभव कर सकता हो वरन् वस्तुओं के अर्थ का भी पता लगा सके, जो प्रकृति और बुद्धि के हदय की गहराई में पहुँचता हो। हम ऐसा मनुष्य (चाहते हैं), जो यहाँ भी न रुके, (वरन् जो (भाव और वास्तविक कार्यों के द्वारा अर्थ का) पता लगाना चाहे। हम मस्तिष्क्र हृदय और हाथों का ऐसा ही सम्मिलन चाहते हैं।'

व्यक्तित्व का ही महत्त्व है
हमारे आसपास की दुनिया में क्या हो रहा है यह तो तुम देख ही रहे हो। अपना प्रभाव चलाना, यही दुनिया है। हमारी शक्ति का कुछ अंश तो हमारे शरीर धारण के उपयोग में आता है और बाकी हर कण दिन रात दूसरों पर अपना प्रभाव डालने में व्यय होता रहता है। हमारा शरीर हमारे गुण हमारी बुद्धि तथा हमारे आत्मिक बल - ये सब लगातार दूसरों पर प्रभाव डालते आ रहे हैं। इसी प्रकार, इसके उल्टे, दूसरों का प्रभाव भी हम पर पड़ता चला आ रहा है। हमारे आसपास यही चल रहा है। एक स्थूल दृष्टान्त लो। एक मनुष्य तुम्हारे पास आता है, वह खूब-पढ़ा लिखा है उसकी भाषा भी सुन्दर है वह तुमसे एक घण्टा बात करता है, तो भी वह अपना असर नहीं छोड़ पाता। दूसरा व्यक्ति आता है और इने-गिने शब्द बोलता है। शायद वे व्याकरण-सम्मत तथा व्यवस्थित भी नहीं होते, तथापि वह खूब असर कर जाता है। ऐसा तो तुममें से बहुतों ने अनुभव किया होगा इससे स्पष्ट है कि मनुष्य पर जो प्रभाव पड़ता है वह केवल शब्दों द्वारा ही नहीं होता। न केवल शब्द, अपितु विचार भी शायद प्रभाव के एक तिहाई अंश ही उत्पन्न करते होंगे परन्तु शेष दो-तृतीयांश प्रभाव तो व्यक्तित्व का ही होता है। जिसे तुम वैयक्तिक चुम्बकत्व कहते हो। वही प्रकट होकर तुमको प्रभावित कर देता है। हम लोगों के कुटुम्बों में मुखिया होते हैं। इनमें से कोई कोई अपना घर चलाने में सफल होते हैं, परन्तु कोई कोई नहीं होते। ऐसा क्यों है' जब हमें असफलता मिलती है, तो हम दूसरों को कोसते हैं। ज्योंही मुझे असफलता मिलती है, त्योंही मैं कह उठता हूँ कि अमुक-अमुक मेरी असफलता के कारण हैं। असफलता आने पर मनुष्य अपनी दुर्बलता तथा दोष को स्वीकार नहीं करना चाहता।

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