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सूरज का सातवाँ घोड़ा

धर्मवीर भारती

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :147
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9603
आईएसबीएन :9781613012581

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'सूरज का सातवाँ घोड़ा' एक कहानी में अनेक कहानियाँ नहीं, अनेक कहानियों में एक कहानी है। वह एक पूरे समाज का चित्र और आलोचन है; और जैसे उस समाज की अनंत शक्तियाँ परस्पर-संबद्ध, परस्पर आश्रित और परस्पर संभूत हैं, वैसे ही उसकी कहानियाँ भी।


एक बार फिर वह मिली और माणिक उस दिन भी उदास थे क्योंकि जुलाई आ गई थी और उनके दाखिले का कुछ निश्चय ही नहीं हो पा रहा था। सत्ती ने बहुत इसरार करके माणिक को रुपए दिए ताकि उनका काम न रुके और फिर बहुत बिलख-बिलख कर रोई और कहा कि उसकी जिंदगी नरक हो गई है। उसे कोई राह नहीं बताता। माणिक मुल्ला ने सांत्वना का एक शब्द भी नहीं कहा, तो वह चुप हो गई और पूछने लगी कि माणिक को उसकी बातें बुरी तो नहीं लगतीं क्योंकि माणिक के अलावा और कोई नहीं है जिससे वह अपना दु:ख कह सके। और माणिक से न जाने क्यों वह कोई बात नहीं छिपा पाती है और उनसे कह देने पर उसका मन हल्का हो जाता है और उसे लगता है कि कम-से-कम एक आदमी ऐसा है जिसके आगे उसकी आत्मा निष्पाप और अकलुष है।

माणिक के सामने कोई रास्ता नहीं था और सच तो यह है कि भइया का कहना भी उन्हें ठीक लगता था कि माणिक का और इन लोगों का क्या मुकाबला, दोनों की सोसायटी अलग, मर्यादा अलग, पर माणिक मुल्ला सत्ती से कुछ कह भी नहीं पाते थे क्योंकि उन्हें पढ़ाई भी जारी रखनी थी, और इसी अंतर्द्वंद्व के कारण उनके गीतों में गहन निराशा और कटुता आती जा रही थी।

और फिर एक रात एक अजब-सी घटना हुई। माणिक मुल्ला सो रहे थे कि सहसा किसी ने उन्हें जगाया और उन्होंने आँख खोली तो सामने देखा सत्ती! उसके हाथ में चाकू था, उसकी लंबी-पतली गुलाबी उँगलियों में चाकू काँप रहा था, चेहरा आवेश से आरक्त, निराशा से नीला, डर से विवर्ण। उसकी बगल में एक छोटा-सा बैग था जिसमें गहने और रुपए भरे थे। सत्ती माणिक के पाँव पर गिर पड़ी और बोली, 'किसी तरह चमन ठाकुर से छूट कर आई हूँ। अब डूब मरूँगी पर वहाँ नहीं लौटूँगी। तुम कहीं ले चलो! कहीं! मैं काम करूँगी। मजदूरी कर लूँगी। तुम्हारे भरोसे चली आई हूँ।'

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