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सूरज का सातवाँ घोड़ा

धर्मवीर भारती

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :147
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9603
आईएसबीएन :9781613012581

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'सूरज का सातवाँ घोड़ा' एक कहानी में अनेक कहानियाँ नहीं, अनेक कहानियों में एक कहानी है। वह एक पूरे समाज का चित्र और आलोचन है; और जैसे उस समाज की अनंत शक्तियाँ परस्पर-संबद्ध, परस्पर आश्रित और परस्पर संभूत हैं, वैसे ही उसकी कहानियाँ भी।


माणिक के पूछने पर उसने बताया कि कल रात को चमन ठाकुर के साथ महेसर दलाल आया। दोनों बड़ी रात तक बैठ कर शराब पीते रहे। सहसा महेसर से बहुत-से रुपयों की थैली ले कर चमन उठ कर बाहर चला गया और महेसर आ कर सत्ती से ऐसी बातें करने लगा जिसे सुन कर सत्ती का तन-बदन सुलगने लगा और सत्ती बाहर के दरवाजे की ओर बढ़ी तो देखा चमन उसे बाहर से बंद करके चला गया है। सत्ती ने फौरन अपना चाकू निकाला और महेसर दलाल को एक धक्का दिया तो महेसर दलाल लुढक गए। एक तो बूढ़े दूसरे शराब में चूर और सत्ती जो चाकू ले कर उनकी गरदन पर चढ़ बैठी तो उनका सारा नशा काफूर हो गया और बोले, 'मार डाल मुझे, मैं उफ न करूँगा। मैं तुझ पर हाथ न उठाऊँगा। लेकिन मैंने नकद पाँच सौ रुपया दिया है। मैं बाल-बच्चेदार आदमी मर जाऊँगा।' और उसके बाद हिचकियाँ भर-भर कर रोने लगा और फिर उसने वह कागज दिखाया जिस पर चमन ठाकुर ने पाँच सौ पर उसके साथ सत्ती को भेजने की शर्त की थी और महेसर रोने लगा और सत्ती के जैसे किसी ने प्राण खींच लिए हों। महेसर के हाथ-पाँव फूल गए। फिर महेसर दलाल ने समझाया कि अब तो कानूनी कार्रवाई हो गई है। फिर महेसर दलाल सुख से रखेगा वगैरह-वगैरह - पर सत्ती जड़ मुरदे-सी पड़ी रही। उसे याद नहीं महेसर ने क्या कहा, उसे याद नहीं क्या हुआ।

सत्ती चुपचाप नीची निगाह किए नखों से धरती खोदती रही और फिर माणिक की ओर देख कर बोली, 'महेसर ने आज यह अँगूठी दी है।' माणिक ने हाथ में ले कर देखा तो मुसकराने का प्रयास करती हुई बोली, 'असली है।' माणिक चुप हो रहे। सत्ती ने थोड़ी देर बाद पूछा कि माणिक उदास क्यों हैं तो माणिक ने बताया कि भाभी से पढ़ाई के बारे में चख-चख हो गई है तो सत्ती ने अँगूठी निकाल कर फौरन माणिक के हाथ में रख दी और कहा कि इससे वह फीस जमा कर दे। आगे की बात सत्ती के हाथ में छोड़ दे। माणिक ने इसे नहीं स्वीकार किया तो क्षण-भर सत्ती चुप रही फिर सहसा बोली, 'मैं समझ गई। अब तुम मुझसे कुछ नहीं लोगे। पर बताओ मैं क्या करूँ? मुझे कोई भी तो नहीं बताता। मैं तुम्हारे पाँव पड़ती हूँ। मुझे कोई रास्ता बताओ? कोई रास्ता - तुम जो कहोगे - मैं हर तरह से तैयार हूँ।' और सचमुच सत्ती जो अब तक पत्थर की तरह निष्प्राण बैठी थी पाँव पकड़ कर फूट-फूट कर रो पड़ी। माणिक घबरा कर उठे पर उसने पाँवों पर सिर रख दिया और इतना रोई इतना रोई कि कुछ पूछो मत। पर माणिक ने कहा कि अब उन्हें देर हो रही है। तो वह चुपचाप उठी और चली गई।

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